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श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
२. काल - किस काल में सिद्ध होते हैं ?
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यहाँ भी दो नयों की अपेक्षा से विचार करना आवश्यक है। प्रत्युत्पन्नभाव प्रज्ञापनीय नय विवक्षा से काल के अभाव में सिद्ध होते हैं क्योकि सिद्धक्षेत्र में काल का अभाव है।
पूर्वभाव प्रज्ञापनीय नय की विवक्षा से जन्म और संहरण की अपेक्षा से विचार करना है । जन्म से सामान्यरीति से अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी में या नो उत्सर्पिणी काल ( महाविदेह क्षेत्र में है) और विशेष से अवसर्पिणी में सुषम, दुःषम-आरे के संख्यात वर्ष बाकी रहे तब जन्म लेने वाला सिद्धपद प्राप्त करता है। दुःषम - सुषमा नाम के चौथे आरे में उत्पन्न वह चौथे तथा दुषमा नामके पाँचवे आरे में मोक्ष जाता है। लेकिन पाँचवे आरे में जन्मा हुआ मोक्ष प्राप्त नहीं करता है।
संहरण के आश्रय से सब काल में अवसर्पिणी - उत्सर्पिणी और जो उत्सर्पिणी अवसर्पिणी कल में मोक्ष को प्राप्त करता है।
३. गति - प्रत्युत्पन्नभाव प्रज्ञापनीय नय की विवक्षा में सिद्धगति में सिद्ध होता है । पूर्वभाव प्रज्ञापनीय नय के दो प्रकार हैं। अनन्तर - पश्चात् कृतगतिक = अन्यगति के अन्तर रहित और एकान्तर पश्चात् कृतगतिक (एक मनुष्य गति के अन्तरवाला) अनन्तर पश्चात् कृत गतिक नय की विवक्षा से मनुष्य गति में उत्पन्न मोक्ष जाता है। प्रकारान्तर पश्चात् कृगतिक नय की अपेक्षा से सब गतियों से आगत सिद्ध पद को प्राप्त करता है।
४. लिङ्ग - लिङ्ग की अपेक्षा से अन्य विकल्पों के तीन प्रकार हैं
१. द्रव्यलिङ्ग २. भावलिङ्ग ३. अलिङ्ग
प्रत्युत्पन्न भाव की अपेक्षा से लिंग रहित सिद्ध होता है । पूर्वभाव की अपेक्षा से भावलिङ्गी ( भावचारित्री), स्वलिङ्ग से (साधुवेष ) सिद्ध होता है।
द्रव्यलिङ्ग के तीन प्रकार हैं
१. स्वलिङ्ग २. अन्यलिङ्ग तथा गृहीलिङ्ग - ये सब भावलिङ्ग को प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त करतें हैं।
५. तीर्थ - श्री तीर्थकर परमात्मा के तीर्थ में तीर्थडकर सिद्ध होते हैं। तीथडरत्व का अनुभव करने के पश्चात् मोक्ष प्राप्त करने वाले तीर्थडकर प्रत्येक बुद्ध होकर सिद्ध होते हैं तथा तीर्थकर साधु होकर सिद्ध होते हैं। इस प्रकार तीर्थङ्कर के तीर्थ में भी पूर्वोक्त भेदयुक्त सिद्ध होते हैं ।
६. चारित्र - चारित्री प्रत्युत्पन्न भाव की अपेक्षाओं से नो चारित्री, नो अचारित्री सिद्ध हो