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१०।१ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ८९ * सूत्रार्थ - पूर्व प्रयोग, असङ्ग, बन्धच्छेद तथा गति परिणाम इन चार हेतुओं से सर्वकर्मक्षय होने पर आत्मा ऊर्ध्वगति करता है।
___ * विवेचनामृतम् * कर्मनिर्लिप्त मुक्तजीव के ऊर्ध्वगमन में अनेक हेतु हैं। उनमें प्रमुख हैं (१) पूर्वप्रयोग (२) असङ्ग (३) बन्धच्छेद (४) गतिपरिणाम.
पूर्वप्रयोग हेतु का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार कुम्भकार अपने हाथ में दण्ड पकड़ कर चाक को चलाता है कुछ देर तक चलाने के पश्चात् भ्रमि उत्पन्न होने पर वह, चाक को घुमाना छोडू देता है किन्तु पूर्वकृत प्रयत्न के कारण चक्र (चाक) में भ्रमि बनी रहती है चक्र कुछ देर तक चलता रहता है। वह चक्रगति पूर्वप्रयोग के अस्तित्व को ही प्रदर्शित करती है। इसी प्रकार कर्मनिमित्त को प्राप्त करके जीव संसार में भ्रमण करता है। कर्म के संयोग से एक संस्कार विशेष भी जीव में आता है जिससे कर्मसंयोग के अभाव में भी उस पूर्व प्रयोग के संस्कार के कारण गमन करता है। इसे ही पूर्वप्रयोग कहते है। यह सिद्धजीव (मुक्तजीव) की गतिमें कारण होता है। मुक्तजीव की गतिऊर्ध्व ही होती है।
संग का अर्थ है- सम्बन्ध। सभी द्रव्यों में जीव तथा पुद्गलद्रव्य ही गतिशील है-यह शास्त्र स्वीकृत है। बाह्य सम्बन्ध को प्राप्त करके द्रव्य की स्वभाव विरुद्ध गति होती है।
बाह्यसंग (सम्बन्ध) के अभाव (असङ्ग) में तो स्वाभाविक गति ही होती है। पुद्गल द्रव्य की गति-अधोगति भी होती है किन्तु जीवद्रव्य की स्वाभाविक गति-ऊर्ध्वगति ही है। अत: असङ्ग (कर्मसंयोग के अभाव) में विमुक्त सिध्यमान (कृतकृत्य) जीव की ऊर्ध्वगति होती है।
बन्धच्छेद तृतीय हेतु के रूप में मूलसूत्र में कथित है। उसका आशय यह है कि- बन्ध का या बन्धों का उच्छेद (छेदन) बन्धच्छेद कहलाता है। जैसे-बीज कोश के फूटने पर एरण्ड का बीज उर्ध्वगति करता है उसी प्रकार कर्मबन्ध के उच्छेद होने पर मुक्त जीव (सिध्यमान जीव) ऊर्ध्वगति ही करता है। वैसे भी जीव (आत्मा) की गति भी ऊर्ध्वात्मक ही होती है, अन्य प्रकारक नहीं-ऐसा समझना चाहिए।
तथागति परिणाम चतुर्थ हेतु के रूप मौलिक सूत्र में प्रदर्शित है। उसका अभिप्राय यह है कि ऊर्श्वगौरव तथा पूर्व प्रयागादि हेतुओं से कर्मविमुक्त जीव की गति का परिणमन-इसी प्रकार होता है, जिसके द्वारा सिध्यमान जीव की ऊर्ध्वगति होती है, नीचे (अधोगति) या तिरछी(तिर्यगगति) नहीं होती है क्योंकि ऊर्श्वगौरव, पूर्वप्रयोग परिणाम, असङ्ग तथा बन्धच्छेद-रूप कारणों से ऊर्ध्वगति प्रमाणित है।
विरुद्ध कारण संयोगों के हट जाने पर अर्थात् कर्मकारणों के हटने पर, सिध्यमान जीव लोकान्त तक ऊर्ध्वगति करता है। धर्मास्तिकाय का सद्भाव लोकान्त तक रहता है। अतएव