________________
२६ ]
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ५१५
बहुत से लोग आकाश का लक्षरण शब्द मानते हैं । “शब्दगुणकमाकाशम् " ( वैशेषिका : ) जो मिथ्या है ।
प्रस्तुत सत्तरह और अठारह सूत्र के सम्बन्ध में विशेष विवेचन के रूप में कहा है किधर्मास्तिकाय, धर्मास्तिकाय और प्राकाशास्तिकाय ये तीनों द्रव्य अमूर्तिक होने से इन्द्रिय प्रगोचर हैं । अर्थात् इनकी सिद्धि लौकिक प्रत्यक्ष " इन्द्रियों" द्वारा नहीं हो सकती ।
आगमप्रमाण से अस्तित्व माना जाता है । वह आगमप्रमाण युक्तिशः तर्क की कसौटी पर चढ़े हुए अस्तित्व को सिद्ध करता कि संसार में गतिशील और गतिपूर्वक स्थितिशील जीव और पुद्गल दो द्रव्य हैं । गति और स्थिति ये दोनों धर्म उक्त दो द्रव्यों के परिणमन तथा कार्य होने से उत्पन्न होते हैं । अर्थात् - गति और स्थिति का उपादान कारण जीव आत्मा तथा पुद्गल ही है । ऐसा होते हुए भी कार्य की उत्पत्ति के लिए निमित्त कारण की अपेक्षा रहती है तथा वह उपादान कारण से पृथग् होना चाहिए । इसलिए जीव- श्रात्मा और पुद्गल की गति के लिए निमित्त रूप धर्मास्तिकाय तथा स्थिति में निमित्त रूप श्रधर्मास्तिकाय की सिद्धि होती है ।
धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीवास्तिकाय तथा पुद्गलास्तिकाय ये चारों द्रव्य किसी-नकिसी जगह स्थित हैं । अर्थात् प्राधेय होना श्रवगाह लेना इनका काम है, किन्तु अवगाह स्थान देना यह प्रकाशास्तिकाय का ही काम माना गया है ।
* प्रश्न – सांख्यदर्शन वाले, न्यायदर्शनवाले तथा वैशेषिकादि दर्शन वाले आकाश द्रव्य को मानते हैं; किन्तु धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय को वे नहीं मानते हैं । तथापि जैनदर्शन इन्हें किसलिए स्वीकार करता है ?
उत्तर - दृश्य और अदृश्य रूप जड़ और चेतन ये दोनों विश्व के मुख्य अंग माने गये हैं । इनमें गतिशीलता तो अनुभवसिद्ध ही है । इसलिए कोई नियमित 'गतिशील ' तत्त्व सहायक न हो तो वे द्रव्य अपनी गतिशीलता के कारण अनन्ताकाश में किसी भी जगह स्थान न रुकते हुए चलते ही रहें तो इस दृश्यादृश्य विश्व जगत् का नियत स्थान "लोक का मान" जो सामान्य रूप से एक सरीखा माना गया है, वह नहीं घट सकता । अनन्त जीव और अनन्त पुद्गल व्यक्तितः अनन्त परिमाण वाले विस्तृत - विशाल आकाशक्षेत्र में रुकावट बिना संचार करते रहेंगे, तो वे ऐसे पृथक्भिन्न हो जायेंगे कि उनका पुनः मिलना कठिन हो जाएगा। इसलिए गतिशील द्रव्यों की गतिमर्यादा को नियन्त्रित करने वाले तत्त्व को श्रीजैनदर्शन स्वीकार करता है ।
उपर्युक्त गतिनियामक "चलन सहायक" तत्त्व स्वीकार करने पर उसके प्रतिपक्षी की भी आवश्यकता रहती है । इसलिए ही स्थिति मर्यादा के नियामक रूप अधर्मास्तिकाय को तत्त्वरूप स्वीकार करते हैं ।
* वर्तमानकाल के वैज्ञानिकों ने भी यह सिद्ध कर दिया है कि इस संसार में एक ऐसा शक्तिशाली पदार्थ है जो चलनादि क्रिया में सबको ही सहायक रूप है । जिसे जैनदर्शन की परिभाषा में 'धर्मास्तिकाय' कहते हैं ।