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पञ्चमोऽध्यायः
विवेचनामृत 5
लोकाकाश के अंगुल के प्रसंख्यातवें भाग से प्रारम्भ करके सम्पूर्ण लोकाकाश में जीव
रहते हैं।
“लोकाकाशेऽवगाहः (५ - १२ ) " इस सूत्र में धर्मास्तिकायादिक द्रव्य लोकाकाश में रहते हैं ऐसा कहा है, तो भी सम्पूर्ण लोकाकाश में रहते हैं कि उसके अमुक भाग में रहते हैं, इस तरह कहा नहीं है । इसीलिए इन तीन (५-१३, ५-१४, ५-१५) सूत्रों में यह कहने में आया है ।
५।१६ ]
[ २१
लोकाकाश के जितने प्रदेश हैं उनके असंख्यातवें भाग से लेकर सम्पूर्ण लोकाकाशपर्यन्त जीवों का अवगाह हुआ करता है ।
सम्पूर्ण लोकाकाश में व्याप्ति समुद्घात की अपेक्षा से है । क्योंकि जब केवली भगवन्त समुद्घात करते हैं, उस समय उनकी आत्मा के प्रदेश क्रम से दंड, कपाट, प्रतर एवं लोकपर्यन्त हुआ करते हैं । उपर्युक्त कथन का सारांश यह है कि पुद्गल के माफिक जीव भी व्यक्ति रूप में अनेक होते हुए भी प्रत्येक जीव के अवगाह क्षेत्र का प्रमाण भिन्न-भिन्न होता है । जीवद्रव्य के श्रवगाह क्षेत्र का प्रमारण कम में कम अंगुल के प्रसंख्यातवें भाग जितना और अधिक में अधिक सम्पूर्ण लोक है । कोई जीव अंगुल के प्रसंख्यातवें भाग में रहता है, कोई जीव दो प्रसंख्यातवें भाग में रहता है, कोई जीव तीन असंख्यातवें भाग में रहता है, इस तरह यावत् कोई जीव सम्पूर्ण लोक में रहता है ।
जब केवल भगवन्त समुद्घात करते हैं तब उनके प्रात्मप्रदेश सम्पूर्ण लोकव्यापी बन जाते हैं । समुद्घात समय में जीव सम्पूर्ण लोक में व्याप्त होकर रहते हैं। शेष समय में तो अपने शरीर प्रमाण आकाशप्रदेश में रहते हैं । ज्यों-ज्यों शरीर बड़ा होता है त्यों-त्यों अधिक-अधिक आकाशप्रदेशों में रहते हैं तथा ज्यों-ज्यों शरीर छोटा होता है त्यों-त्यों कम-कम सीमित प्रकाशप्रदेशों में रहते हैं ।
जैसे समकाल में अनेक जीवों के अवगाह के क्षेत्र में प्रमारण भिन्न-भिन्न होता है वैसे ही भिन्नभिन्न काल की अपेक्षा एक ही जीव के अवगाह के क्षेत्र का प्रमाण भिन्न होता है । हाथी के भव को पाया हुआ जीव हाथीप्रमाण शरीर में रहता है। वही जीव कीड़ी के भव को पाते हुए कीड़ीप्रमाण शरीर में रहता है । वही जीव पुनः अन्य भव में अन्य अन्यभव के शरीर में रहता है ।। ५- १५ ।।
* जीवस्य भिन्नावगाहनासु हेतुः
5 मूलसूत्रम्
प्रदेशसंहार - विसर्गाभ्यां - प्रदीपवत् ॥ ५-१६ ॥
* सुबोधिका टीका *
प्रदीपवत् जीवस्य प्रदेशानां संहारविसर्गाविष्टो । यथा तैलवर्त्यग्न्युपादानवृद्धः प्रदीपः बृहतीमपि कूटागारशालामण्वीमपि प्रकाशयति ।