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________________ १४ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ५।१० इसी तरह छोटा शरीर भी ज्यों-ज्यों बड़ा होता जाता है, त्यों-त्यों आत्मप्रदेशों का विस्तार होता जाता है। आत्मप्रदेश देह-शरीर के बाहर रह जाँय ऐसा होता नहीं है तथा देह-शरीर के अमुक भाग में न हो ऐसा भी नहीं होता है । पुदगलों का भी संकोच और विस्तार होता है। यह तो सब प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। जैसे-एक बड़े कमरे में प्रसरित दीपक-दीवा के प्रकाश के प्रदेश एक छोटे कक्ष में रखने में प्रा जाय तो भी संकोच पाकर इतने ही विभाग में सिमट जाते हैं। दोपक को बाहर निकालने पर प्रकाश के प्रदेश विकसित होने से वे सम्पूर्ण बड़े कमरे में प्रसरित हो जाते हैं । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और जीवास्तिकाय के प्रदेश मूल द्रव्य से कभी पृथग नहीं होते हैं अर्थात् अलग-भिन्न होते नहीं हैं। क्योंकि धर्मास्तिकाय आदि अरूपी हैं । अरूपी द्रव्यों में संश्लेष का और विश्लेष का अभाव होता है । पुद्गल द्रव्य के प्रदेश तो मूल द्रव्य से पृथग-छूटे पड़ते हैं तथा फिर मिल भी जाते हैं। एक स्कन्ध के प्रदेश उस स्कन्ध में से पृथग-छटे होकर अन्य स्कन्ध में जुड़ जाते हैं। इसलिए द्रव्य के स्कन्धों के प्रदेशों की संख्या अनियत ही रहती है। एक ही स्कन्ध में कई बार संख्यात, तो कई बार असंख्यात, तो कई बार अनन्त प्रदेश भी होते हैं। अर्थात्-पुद्गल द्रव्य के स्कन्ध धर्मास्तिकायादि चार द्रव्यों के समान नियत रूप नहीं हैं। वे कोई संख्यात, कोई असंख्यात, कोई अनन्तप्रदेशी हैं तथा कई अनन्तानन्त प्रदेशी भी हैं । पुद्गल तथा अन्य द्रव्यों के प्रदेशों में परस्पर यह भिन्नता है कि पुद्गल के प्रदेश अपने स्कन्ध से भिन्न-जुदे हो सकते हैं। किन्तु धर्मास्तिकाय आदि चार द्रव्यों के प्रदेश अपने स्कन्धों से पृथक्-जुदे नहीं हो सकते हैं। क्योंकि वे अमूर्त हैं और अखण्डित रहना ही उनका स्वभाव है। मिलने की और बिखरने की क्रिया तो केवल पुद्गल स्कन्धों में ही होती है तथा उनके छोटे-बड़े अंशों को अवयव कहते हैं। अवयव का अर्थ स्कन्ध से पृथक् होने वाला अंश है। वह धर्मास्तिकाय आदि चार द्रव्यों और परमाणु के नहीं होता है। मूत्तिमान एक परमाणु पुद्गलरूप द्रव्य है। उसका आदि, मध्य और प्रदेश नहीं है । वह अविभाज्य द्रव्य है। उसके अंश की कल्पना बुद्धि से भी नहीं होती। यह पुद्गल का वास्तविक स्वरूप है तथा द्वयणुकादि स्कन्धों की उत्पत्ति भी इसी से होती है। कहा गया है कि "कारणमेव सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः" यह परमाणु का लक्षण है। द्वयणुकादिक से यावत् अनन्तानन्तप्रदेशी स्कन्धों का कारण परमाणु है। यह होते हुए भी परमाणु का कोई कारण नहीं है। यह द्रव्य व्यक्ति रूप से निरंश है तथा नित्यरूप है। किन्तु पर्यायरूप से ऐसा नहीं कह सकते हैं क्योंकि एक परमाणु में भी वर्ण, गन्ध, रस तथा स्पर्शादिक अनेक पर्याय पाये जाते हैं। इसलिए पर्याय से उसके अंश की भी कल्पना की गई है। वे परमाणु 'द्रव्य' के भाव रूप अंश हैं। एक व्यक्तिगत द्रव्य परमाणु में वर्णादिक भावपरमाणु अनेक माने गये हैं।
SR No.022534
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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