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१० ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ५७ उपर्युक्त पाँच द्रव्यों में से तीन द्रव्य “धर्माधर्माकाश" एक-एक व्यक्तिरूप हैं, अर्थात् एकएक स्वतन्त्र पिण्डरूप हैं। वे पृथक्-भिन्न रूप से दो, तीन इत्यादि नहीं हैं। तथा निष्क्रिय यानी क्रियारहित हैं।
एक व्यक्तित्व तथा निष्क्रियत्व इन दोनों धर्मों का उक्त तीन द्रव्यों में साधर्म्य है। जीव तथा पुद्गल अनेक व्यक्तिरूप हैं और क्रियाशील भी हैं ।
धर्मास्तिकायादिक तीनों द्रव्यों को निष्क्रिय कहा है सो वे जीव, पुद्गल के समान चल भाव को प्राप्त होकर के प्रदेशान्तर रूप गमन क्रिया नहीं करते हैं। परन्तु वे अपने चलन सहायादि गुणों से सक्रिय कहे जा सकते हैं। क्योंकि, वे गुण अपनी-अपनी क्रिया में नित्य प्रवर्तनशील हैं।
जीव-आत्मा के विषय में अन्य दार्शनिकों का जिस तरह मन्तव्य है उसी तरह श्रीजैनदर्शन नहीं मानता है।
जैसे-वेदान्तदर्शन आत्मद्रव्य को एक व्यक्तिरूप मानता है। साङ्खयदर्शन तथा वैशेषिकादि भी वेदान्त के समान एक द्रव्य मानकर उसे निष्क्रिय नहीं मानते हैं। जैनदर्शन जीव को अनेक तथा क्रियाशील मानता है।
* प्रश्न-जैनदर्शन पर्याय परिणमन रूप उत्पाद-व्यय समस्त द्रव्यों में मानता है।
यह परिणमन क्रियाशील द्रव्यों में हो सकता है, किन्तु निष्क्रिय द्रव्यों में कैसे
मानते हो? उत्तर-यहाँ पर निष्क्रियत्व से गति क्रिया का निषेध है। किन्तु क्रियामात्र का नहीं, अर्थात् निष्क्रिय “धर्माधर्माकाश" द्रव्य का अर्थ जैनदर्शन में मात्र गतिशून्य द्रव्य माना है तथा उन धर्मास्तिकायादिक गतिशून्य द्रव्यों में भी चलन सहायादि गुण अपने-अपने विषय का उत्पादव्यय रूप माना है। जैनदर्शन "उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त सत्" इसे द्रव्य का लक्षण मानता
* प्रदेशसंख्याविचारः *
धर्मादिद्रव्येषु प्रदेशानां परिमाणः 卐 मूलसूत्रम्
असंख्येयाः प्रदेशाः धर्माधर्मयोः ॥ ५-७ ।।
* सुबोधिका टीका * परमनिरुद्धनिरवयवं देशं प्रदेश मिति । द्रव्यपरमाणु-अपेक्षया स्वरूपं ज्ञायते । प्रदेशो नामापेक्षिकः सर्वसूक्ष्मस्तु परमाणोरवगाहेति । न कोऽपि परमाणु यत् द्वयोः