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प्रात्मचिन्तनाष्टक x
(हरिगीत-छन्द में) ज्ञानादि तत्त्वों से भरी, इस प्रात्मनिधि को जानिये । द्रव्य से है नित्य पर्यायित्व अनित्य मानिये । विविध कर्मों को करे जो, कर्मफल को वो सहे । कर्मोदयी भटके भवान्तर, कर्मक्षय से शिव लहे ।। १ ।। संसारमय भी जीव जब हो, सिद्धपद की प्रातमा । तो स्फटिकसम निर्मल गुणों से, पूर्ण शुचि परमात्मा ।। कर्म के संयोग और वियोग के, भिन्न-भिन्न स्वरूप ही । कर्म हेतु छोड़ते जब, शिव मुक्ति पाते हैं वही ॥ २ ॥ हे जीव ! तुम हो कौन ! कैसे, है मिला नर भव तुझे । क्या सोचता? क्या बोलता? क्या कर्म ? क्या चिन्तन तुझे ।। । शुभगति को प्राप्त करने, शुभ साधना की क्या नहीं ? । निज गुणों में रमण करता, या परायों में सही ? ।। ३ ॥ ज्ञानादि सद्गुणवन्त तू, गुण पास तेरे हैं सभी । पर-वस्तु का संयोग देता, दुःख परम्पर नित अभी । ज्ञानादि गुण से भिन्न है, वे वस्तु पर ही मानिये ।
आत्मतत्त्व स्वरूपमय ही, श्रेष्ठ तत्त्व सुजानिये ।। ४ ॥ सच्चे गुरु की वाणी ही, करत पात्म प्रकाश है। कर्म निकन्दन से ही भविजन, जाते पथ निर्वाण हैं ।। हो परिमार्जितात्मा, त्रयरत्न सद्गुण खान है। मुक्त हो भव व्याधियों से, शिवनिधि संयुक्त है ।। ५ ।।