SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६।२३ ] षष्ठोऽध्यायः (१०) अरिहन्त भक्ति-रागादिक अठारह दोषों से जो रहित हैं, वे अरिहन्त कहलाते हैं। उनके गुणों की स्तुति, वन्दना तथा पुष्पादिक से पूजा इत्यादि अरिहन्त भगवान की भक्ति है। (११) प्राचार्य भक्ति -पाँच इन्द्रियों का जय इत्यादि छत्तीस गुणों से जो युक्त हैं, वे आचार्य कहलाते हैं। जब प्राचार्य महाराज पधारें तब बहुमानपूर्वक सामने जाना, वन्दन करना, तथा प्रवेश महोत्सव भी करना; इत्यादिक से प्राचार्य महाराज की भक्ति करनी। (१२) बहुश्रुत-भक्ति-अनेक श्रुत को अर्थात् शास्त्रों को जानने वाला जो होता है, वह बहुश्रुत कहलाता है। उनके पास विधिपूर्वक अभ्यास करना, विनय करना, उनके बहुश्रुतपने की प्रशंसा-अनुमोदना करनी इत्यादि बहुश्रुत-भक्ति है। (१३) प्रवचनभक्ति -प्रवचन यानी आगमशास्त्र इत्यादि श्रुत । नित्य नवीन-नवीन श्रुत का अभ्यास करना, अभ्यस्त श्रुत का प्रतिदिन परावर्तन करना, अन्य-दूसरे को श्रुत पढ़ाना तथा श्रुत का सर्वत्र प्रचार करना इत्यादि अनेक रीतियों से श्रुत की भक्ति हो सकती है । (१४) आवश्यक अपरिहारिण- जो अवश्य ही करना चाहिए; जिसके किये बिना नहीं चल सकता है, वह प्रावश्यक कहा जाता है। सामान्य से सामायिक इत्यादि 'छह' आवश्यक हैं । किन्तु यहाँ आवश्यक शब्द से संयम-निर्वाह के लिए जरूरी समस्त क्रियायें समझनी। संयम की सर्व प्रकार की क्रियाओं को भाव से समयसर विधिपूर्वक करना, 'प्रावश्यक अपरिहाणि' है । ___ भाव से अर्थात् मानसिक उपयोगपूर्वक । उपयोग सिवाय के सभी धार्मिक अनुष्ठान द्रव्य अनुष्ठान हैं। ऐसे द्रव्यानुष्ठानों से आत्मकल्याण नहीं होता है। (१५) मार्गप्रभावना-सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्र ये तीन मोक्ष के मार्ग हैं। अर्थात् ये मोक्ष-प्राप्ति के उपाय हैं। मोक्षमार्ग की प्रभावना अर्थात् स्वयं मोक्षमार्ग का पालन करने के साथ अन्य दूसरे जीव भी मोक्ष का मार्ग पा सकें, इसलिए धर्मोपदेश आदि द्वारा मोक्षमार्ग का ही प्रचार करना; वह मार्गप्रभावना है। (१६) प्रवचनवात्सल्य–यहाँ प्रवचन शब्द से श्रुतधर बाल, वृद्ध, ग्लान, तपस्वी, शैक्ष्य तथा गण इत्यादि मुनि भगवन्त जानना। उन पर संग्रह, उपग्रह और अनुग्रह से वात्सल्यभाव रखना, वह प्रवचनवात्सल्य है। संग्रह यानी ज्ञानाभ्यास आदि के लिए आये हुए पर समुदाय के साधु को शास्त्रोक्त विधिपूर्वक स्वीकार करना, अपने पास रखकर के ज्ञानाभ्यास प्रादि कराना। उपग्रह या को जरूरी वस्त्र, पात्र तथा वसतिका आदि प्राप्त कराना। अनुग्रह यानी शास्त्रोक्त विधि प्रमाणे साधुओं को भक्त-पान आदि लाकर देना। अथवा प्रवचन यानी प्रवचन की श्रीजिनशासन-धर्म की आराधना करने वाला आराधक सामिक जानना। जैसे-माता अपने पुत्र पर अकृत्रिम प्रेम-स्नेह धारण करती है, वैसे सार्मिक पर अकृत्रिम प्रम-स्नेह रखना वह प्रवचन वात्सल्य है। प्रवचन वात्सल्य धर्म के साध्य, साधकों पर अनुग्रह
SR No.022534
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy