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[ ६।२२
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे * शुभनामकर्मणः प्रानवाः *
मूलसूत्रम्
तविपरीतं शुभस्य ॥ ६-२२॥
* सुबोधिका टीका *एतदुभयं विपरीतं शुभस्य नाम्न प्रास्रवो भवति । अर्थात् मन-वचन-कायभिः विसंवादिनी प्रवृत्तिश्च प्रशुभप्रवृत्तेरभावः शुभनामकर्मास्रवो भवति । अत्र शुभाऽशुभनामकर्मण व्याख्या कृता, किन्तु नामकर्मप्रवृत्तिषु तीर्थङ्करकर्म सर्वेषु उत्कृष्टतमः प्रधानतमश्च यस्योदयात् अर्हन्तभगवन्तः मोक्षमार्गे प्रवृत्ताः भवन्ति । अत एव तद् कर्मोत्कृष्टं वणितु बन्धकारणानि अपि ज्ञातव्यानि ।। ६-२२ ।।
* सूत्रार्थ-इनके विपरीत अर्थात् योग की अवक्रता और अविसंवाद शुभ नामकर्म के बन्ध हेतु हैं ।। ६-२२ ।।
9 विवेचनामृत ॥ अशुभनामकर्म के प्रास्रवों से विपरीत भाव शुभनामकर्म के प्रास्रव हैं।
(१) योगवक्रता-मन, वचन, काय की कुटिलता (२) विसंवाद-अन्यथा प्रवर्तन करना ये अशुभ नामकर्म के बन्ध हेतु हैं ।
* प्रश्न-उपर्युक्त दोनों कारणों में क्या अन्तर है ?
उत्तर-योगवक्रता है, वह स्व विषयी है। अर्थात् अपने मन, वचन, काय की वक्रतापने प्रवृत्ति करनी तथा विसंवाद परविषयी है। अर्थात् अन्य-दूसरे को अन्य रास्ते प्रेरित करना।
उपर्युक्त कारणों की विपरीतता अर्थात्-मन, वचन और काय की सरलता तथा यथार्थ प्रवर्तन शुभ नामकर्म के बन्धहेतु हैं ।
विशेष-मन, वचन और काया की सरलता तथा प्रविसंवाद ये चार शुभ नामकर्म के मुख्य मास्रव हैं। तदुपरान्त धर्मीजीव-प्रात्मा के प्रति आदरभाव, संसारभय, तथा अप्रमाद इत्यादि भी शुभ नामकर्म के आस्रव हैं ।। ६-२२ ।।