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६।१३ ]
षष्ठोऽध्यायः सवेद्यस्यास्रवा भवन्ति । एतेषु कारणेषु वा एकादिषु अपि सत्सु सातावेदनीयकर्मबन्धः । मूलसूत्रे षड्कारणानि निर्दिष्टानि-भूतवृत्यनुकम्पा दानं, सराग-संयमादि, योगः क्षान्तिश्च शौचमिति ।। ६-१३ ।।
* सूत्रार्थ-प्राणिमात्र पर दया, व्रतियों की भक्ति, दान, सराग-संयम अकामनिर्जरा, योग, क्षान्ति और शौच ये सब कारण या इनमें से एकादिक के होने पर सातावेदनीय कर्म का बन्ध होता है ।। ६-१३ ।।
ॐ विवेचनामृत भूत-प्रनुकम्पा (समस्त प्राणियों पर दया), व्रतियों पर अनुकम्पा, दान, सराग-संयमादि तथा योग, क्षान्ति और शौच, सातावेदनीय कर्मबन्ध हेतु आस्रव हैं। अर्थात्-भूत-अनुकम्पा, व्रती अनुकम्पा, दान, सराग-संयम, संयमासंयम, अकाम-निर्जरा, बालतप, क्षान्ति तथा शौच ये सभी सातावेदनीय कर्म के प्रास्रव हैं।
(१) भूत-अनुकम्पा-समस्त जीवों पर दया व कृपा। अर्थात्-भूत यानी जीव । सर्वजीवों के प्रति अनुकम्पा-दया के परिणाम रखना, यह 'भूत-अनुकम्पा' है ।
(२) व्रती-अनुकम्पा-अल्पांश व्रतधारी गृहस्थ और सर्वांग व्रतधारी त्यागी दोनों पर विशेष दया। अर्थात्-व्रती के अगारी और अरणगार इस तरह दो भेद हैं। गृहस्थ अवस्था में रहकर स्थूल प्राणातिपातादिक पापों को त्याग करने वाले ऐसे देशविरति श्रावक 'अगारी व्रती हैं तथा समस्त प्रकार के पापों को त्याग करने वाले पंचमहाव्रतधारी साधु 'अणगार' व्रती हैं ।
दोनों प्रकार के व्रतियों की भक्तपान, वस्त्र, पात्र, आश्रय, औषध इत्यादि से अनुकम्पा करनी यानी भक्ति करनी, यह 'व्रती अनुकम्पा' है ।
(३) दान-अपनी चीज-वस्तु किसी को नम्रता से अर्पण करना-देना। अर्थात्-स्व-पर के प्रति अनुग्रह बुद्धि से अपनी चीज-वस्तु पर को देना, यह दान है ।
(४) सरागसंयम-सराग संयमादि योग अर्थात् संसार से विरक्त भाव, तृष्णा हटाने में तत्पर हो के संयम स्वीकार करने पर भी जब तक मन के रागादिक संस्कार क्षीण नहीं होते हैं, उसे 'सराग संयम' कहते हैं।
__सरागसंयम (संज्वलन) लोभादिक कषाय राग हैं। राग युक्त वह सराग। संयम यानी प्राणातिपातादिक से निवृत्ति । राग युक्त संयम वह सराग संयम अथवा सराग यानी राग सहित व्यक्ति का संयम सरागसंयम । अर्थात् संज्वलन कषाय के उदय वाले मुनियों का संयम, वे सरागसंयम हैं।
(५) संयमासंयम-जिसमें प्रांशिक संयम हो और प्रांशिक असंयम हो, वह संयमासंयम अर्थात् देशविरति कहा जाता है ।