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६।१२ ] षष्ठोऽध्यायः
[ २६ (२) शोक-इष्ट वस्तु का वियोग होने पर चित्त में उत्पन्न हुई मलिनता या खेद को 'शोक' कहते हैं। अर्थात्-अनुग्रह करने वाले बन्धु आदि के वियोग से बारम्बार उसके वियोग के विचारों द्वारा मानसिक चिन्ता-खेद इत्यादि जानना।
(३) ताप-यानी पश्चात्ताप करना। अर्थात्-कठोर वचन श्रवण, ठपका, पराभव इत्यादिक से अन्तःकरण-हृदय में संताप करना इत्यादि जानना ।
(४) प्राक्रन्दन-शोकादिक से व्यक्तरूप रोदन उसको 'प्राक्रन्दन' कहते हैं। अर्थात्हृदय में परिताप (मानसिक संताप) होने से शिर-मस्तक पछाड़ना, छाती कूटना, हाथ-पांव पछाड़ना तथा अश्रुपात करने पूर्वक रुदन करना-रड़ना, इत्यादि जानना।
(५) वध-यानी प्राणों का वियोग करना, उसको 'वध' कहते हैं। अर्थात्-सोटी इत्यादिक से मारना।
(६) परिदेवन–वियुक्त के गुणों का स्मरण करके करुणाजनक रुदन करना, उसको 'परिदेवन' कहते हैं। अर्थात्-अनुग्रह करने वाले बन्धु आदि के वियोग से विलाप करना । तथा अन्य-दूसरे को दया आ जाए, इस तरह दीन बन करके उसके वियोग का दुःख प्रगट करना इत्यादि जानना।
उपर्युक्त दुःखादि 'छह' तथा अन्य ताड़न, तर्जनादि अनेक प्रकार के निमित्त स्व तथा पर में उत्पन्न करने से असाता वेदनीयकर्म का बन्ध होता है ।
शोक इत्यादि भी दुःख रूप ही हैं। वे असाता वेदनीयकर्म के उदय से जीवों को किस-किस प्रकार के दुःखों के अनुभव कराते हैं, यह कहने के लिए यहाँ शोकादिक को भिन्न-भिन्न बताया है। शोक में अपने मन में चिन्ता, खेद इत्यादि होते हैं, जबकि परिदेवन में अन्तःकरण-हृदय में रही हुई चिन्ता इत्यादि करुण शब्दों से बाहर प्रगट होती है। इस तरह शोक और परिदेवन में भिन्नता है । अनीति, विश्वासघात, त्रास, तिरस्कार, ठपका, चुगली-चाड़ी, परपराभव, परनिन्दा, आत्मश्लाघा, निर्दयता, महापारम्भ तथा महापरिग्रह इत्यादि भी असाता वेदनीय के प्रास्रव हैं। इन आस्रवों से भवान्तर में भी और इस भव में भी दुःख मिले, ऐसे अशुभकर्मों का बन्ध होता है ।
* प्रश्न-दुःखादिक कारणों को स्व तथा पर में उत्पन्न करने से यदि असातावेदनीय कर्म का ही बन्ध होता है तो केशलुचन तथा उपवासादिक तपश्चर्या और आसन, आतापनादिक से आत्मा को दुःखित करना भी असाता वेदनीयकर्म का बंधक होगा। इसलिए तो व्रत, नियम तथा अनुष्ठानादिक करना भी पापबन्ध के हेतु होते हैं ।
उत्तर-जीव-प्रात्मा को क्रोधादिक के आवेश से उत्पन्न होने वाले दुःखादि निमित्त प्रास्रव रूप होते हैं। अन्यथा सामान्यतया समस्त प्रकार से त्याज्यरूप नहीं हैं। वास्तविक यथार्थ त्यागी तथा तपस्वियों के लिए वे आस्रवरूप नहीं होते हैं और असाता वेदनीयकर्म के भी बन्धक नहीं होते हैं। इसके मुख्य दो कारण हैं। प्रथम कारण तो यह है कि-उत्कृष्ट त्यागवृत्ति वाले जीव कितने ही कठिन से कठिन नियम-प्रतिज्ञा, अनुष्ठान इत्यादि करें तो भी वे सद्वृत्ति तथा सद्बुद्धि के