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* वत्तमा
६।११ ] षष्ठोऽध्यायः
[ २७ (६) उपघात-प्रशस्त ज्ञान में भी दोष लगाना। अर्थात्-अज्ञानता आदि से 'यह कथन असत्य है', इत्यादि रूप में ज्ञान में दूषण लगाना। 'इस तरह नहीं ही होता' इत्यादि रूप में ज्ञानी भगवन्त के वचनों को असत्य मानना, तथा ज्ञानी को आहारादिक के दान से सहायता नहीं करनी एवं ज्ञान के साधनों का विनाश करना इत्यादि। यह सब उपघात कहलाता है। ये ज्ञानावरणोय कर्म के प्रास्रव हैं। इन्हीं कारणों से दर्शनावरणीय कर्म का भी बन्ध
* यद्यपि प्रासादन और उपघात इन दोनों का अर्थ विनाश होता है, परन्तु प्रासादन में ज्ञानादिक के प्रति अनादर की मुख्यता है और उपघात में दूषण की मुख्यता है। इस तरह प्रासादन और उपघात में भिन्नता है। 'सर्वार्थसिद्धि नामक वत्ति' में भी ऐसा ही कहा है।
विशेष-ज्ञानी के प्रतिकूल वर्तना, ज्ञानी के वचन पर श्रद्धा नहीं रखनी, ज्ञानी का अपमान करना, ज्ञान का गर्व करना, अकाल में अध्ययन करना, पठन-पाठन-अभ्यास में प्रमाद करना, स्वाध्याय तथा व्याख्यान श्रवणादिक अनादर से करना, असत्य-झठा उपदेश देना, सूत्रादिक से विरुद्ध बोलना एवं अर्थोपार्जन के हेतु से शास्त्रादि बेचना। इन सबका 'प्रदोष' इत्यादिक में समावेश हो जाता है।
* वर्तमान काल में ज्ञान की पाशातना * वर्तमान काल में ज्ञान की आशातना अधिकतम हो रही है। जैसे(१) पोथी-पुस्तक इत्यादिक ज्ञान के साधनों को नीचे जमीन-भूमि पर रखना। (२) पोथी-पुस्तक इत्यादिक ज्ञान के साधनों को जहाँ-तहाँ फेंक देना।
(३) पोथी-पुस्तक इत्यादिक ज्ञान के साधनों को मलिन वस्त्रों के साथ या देह-शरीरादिक अशुद्ध वस्तु के साथ स्पर्श करना।
(४) पोथी-पुस्तक इत्यादिक ज्ञान के साधनों को बगल में अथवा खीसे में रखना।
(५) पोथी-पुस्तक इत्यादिक ज्ञान के साधनों को पास में रखकर के झाड़ा तथा पेशाब आदि करना।
(६) भोजनादिक करते-करते जूठे मुंह से बोलना, गाना और पढ़ना-पढ़ाना।
(७) अक्षर वाली दवा की गोली आदि खानी, अक्षर वाले पेड़ा इत्यादि खाना, अक्षर वाले कागज-थाली इत्यादि में भोजन जीमना तथा प्याला-प्याली इत्यादिक से जल-पानी आदि पीना।
(८) अक्षर वाले कपड़े, साबुन आदि का उपयोग करना। (8) अक्षर वाले कागज में खाने आदि की चीज-वस्तु बांधनी तथा खानी ।
१. 'मतो ज्ञानस्य विनयप्रदानादिगुणकीत्त नानुष्ठानमासादनम्, उपघातस्तु ज्ञानमज्ञानमेवेति ज्ञाननाशाभिप्राय: इत्यनयोरयं भेदः ।'
[सर्वार्थसिद्धि टीकायाम्]