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________________ श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की महत्ता है। धमलामि जैनागमरहस्यवेत्ता पूर्वधर वाचकप्रवर श्री उमास्वाति महाराज ने अपने संयमजीवन के काल में पंचशत (५००) ग्रन्थों की अनुपम रचना की है। वर्तमान काल में इन पंचशत (५००) ग्रन्थों में से श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र, प्रशमरतिप्रकरण, जम्बूद्वीपसमासप्रकरण, क्षेत्रसमास, श्रावकप्रज्ञप्ति तथा पूजाप्रकरण इतने ही ग्रन्थ उपलब्ध हैं। पूर्वधर - वाचकप्रवरश्री की अनमोल ग्रन्थराशिरूप विशाल आकाशमण्डल में चन्द्रमा की भाँति सुशोभित ऐसा सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ यह श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्र है। इसकी महत्ता इसके नाम से ही सुप्रसिद्ध है। पूर्वधर-वाचकप्रवरश्रीउमास्वाति महाराज जैन आगम सिद्धान्तों के प्रखर विद्वान् और प्रकाण्ड ज्ञाता थे। इन्होंने अनेक शास्त्रों का अवगाहन कर के जीवजीवादि तत्त्वों को लोकप्रिय बनाने के लिए अतिगहन और गम्भीर दृष्टि से नवनीत रूप में इसकी अति सुन्दर रचना की है। यह श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्र संस्कृत भाषा का सूत्ररूप से रचित सबसे पहला अत्युत्तम, सर्वश्रेष्ठ महान् ग्रन्थरत्न है। यह ग्रन्थ ज्ञानी पुरुषों को, साधु-महात्माओं को, विद्वद्वर्ग को और मुमुक्षु जीवों को निर्मल आत्मप्रकाश के लिए दर्पण के सदृश देदीप्यमान है और अहर्निश स्वाध्याय करने लायक तथा मनन करने योग्य है। पूर्व के महापुरुषों ने इस तत्त्वार्थसूत्र को अर्हत् प्रवचनसंग्रह रूप में भी जाना है। पुरोवचन है छठे अध्याय के कुल सूत्रों की संख्या २६ है। ग्रन्थ के प्रारम्भ में मोक्षमार्ग-रत्नत्रय के विषयभूत सात तत्त्व गिनाये थे। जीव और अजीव तत्त्व का वर्णन पिछले अध्यायों में हो चुका है। इस अध्याय में तीसरे आस्रव तत्त्व का वर्णन है। इसमें आस्रव का लक्षण, भेद तथा आठों कर्मों के आस्रव हेतु कारणों का विशद वर्णन है।
SR No.022534
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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