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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र
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जीव-आत्मा में चेतना तथा प्रानन्द-वीर्यादिक शक्तियों के स्वरूप की विविध अनेक पर्याय प्रतिसमय प्रवाहित रहती हैं। किन्तु एक चेतना शक्ति या एक आनन्द शक्ति की उपयोग या वेदना पर्याय एक समय अनेक प्रवाहित नहीं रहती हैं। कारण कि, एक ही समय में प्रत्येक शक्ति की एक ही पर्याय प्रगट होती है। इसी तरह पुद्गल में भी नील, पीत इत्यादि अनेक पर्यायों में एकैक शक्ति की एकेक पर्याय एक समय रहा करती है। जैसे-आत्मा और पुद्गल नित्य हैं वैसे चेतना और रूप इत्यादि शक्तियाँ भी नित्य हैं। किन्तु चेतनाजन्य उपयोग पर्याय तथा रूपशक्तिजन्य नील और पीत इत्यादि पर्याय नित्य नहीं हैं। परन्तु उत्पाद, व्ययशील होने से व्यक्तिश: अनित्य है तो भी प्रवाह की अपेक्षा वह नित्य है।
* सारांश-प्रत्येक द्रव्य में अनेक प्रकार के भिन्न-भिन्न धर्म-परिणाम होते हैं। वे धर्म परिणाम दो प्रकार के हैं। कितनेक धर्म, द्रव्य में सदा रहते हैं। कभी भी द्रव्य में उन धर्मों का अभाव देखने में नहीं आता है। जब से द्रव्य की सत्ता है, तभी से उन धर्मों की द्रव्य में सत्ता है ।
अर्थात् द्रव्य के सहभावी यानी सदा द्रव्य के साथ रहने वाले हैं। उन्हीं धर्मों को गुण कहने
में आता है।
जैसे-आत्मद्रव्य का चैतन्य धर्म। यह धर्म प्रात्मा के साथ ही रहता है। आत्मद्रव्य में चैतन्य धर्म न हो ऐसा कभी होता नहीं है। प्रात्मा और चैतन्य सूर्य के प्रकाश की भाँति सदा साथ ही रहते हैं। इससे चैतन्य आत्मा का गुण है। रूप, रस, गन्ध और स्पर्श इत्यादि पुद्गल द्रव्य के गुण हैं। कारण कि, निरन्तर पुद्गल के साथ ही रहते हैं। इससे यह निष्कर्ष आता है कि जो धर्म द्रव्य के सहभावी अर्थात् सतत साथ रहते हों, वे धर्म द्रव्य के गुण हैं।
अब, अपन अन्य प्रकार के धर्मों का भी विचार करें। कितनेक धर्म द्रव्य में नित्य रहते नहीं हैं, किन्तु कुछ एक होते हैं और कुछ नहीं भी होते हैं ।
अर्थात्-कितनेक धर्म क्रमभावी (उत्पन्न होने वाले और विनाश पामने वाले) होते हैं । कमभावी [यानी उत्पाद-विनाशशील] ऐसे धर्मों को पर्याय कहने में आता है। जैसे - प्रात्मा के ज्ञानोपयोग तथा दर्शनोपयोग इत्यादि धर्म। जब आत्मा में ज्ञानोपयोग होता है तब दर्शनोपयोग नहीं होता है तथा दर्शनोपयोग जब होता है, तब ज्ञानोपयोग नहीं होता है। आम ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग ये दोनों धर्म क्रमभावी अर्थात् विनाश पाने वाला और उत्पन्न होने वाला होने से आत्मा के पर्याय हैं। इस तरह कृष्ण तथा श्वेत इत्यादि वर्ण, तिक्त आदि रस, सुरभि आदि गन्ध, कठिन स्पर्श इत्यादि पुद्गलों के पर्याय हैं। कारण कि, कालान्तरे ये धर्म विनाश पामते हैं और पुनः उत्पन्न होते हैं। यहाँ पर इतना ख्याल रखने का है कि, सामान्य से वर्ण एक गुण है। जबकि कृष्णवर्ण श्वेतवर्ण ये पर्याय हैं। इस तरह रसादि में भी जानना। प्रत्येक द्रव्य में अनन्तगुण और अनन्त पर्यायें हैं। द्रव्य तथा गुण उत्पन्न नहीं होने से नित्य हैं अर्थात् अनादि-अनंत हैं।