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५।३४ ] पञ्चमोऽध्यायः
[ ६७ * बन्धविषये द्वितीयोपवादः * ॐ मूलसूत्रम्
गुणसाम्ये सदृशानाम् ॥ ५-३४ ॥
* सुबोधिका टीका * प्रत्र सदशताक्रियाकृतसमतापेक्षया नैव किन्तु गुणकृतसमतापेक्षयैव ज्ञातव्या । गुणसाम्ये सति सदृशानां बन्धो न भवति तद्यथा तुल्यगुणस्निग्धस्य तुल्यगुणस्निग्धेन, तुल्यगुणरूक्षस्य तुल्यगुणरूक्षेणेति ।। ५-३४ ।।
* सूत्रार्थ-स्निग्ध प्रौर रूक्षगुणों की समानता के द्वारा जो सदृश हैं, उनका भी बन्ध नहीं हुमा करता ।। ५-३४ ।।
विवेचनामृत गुण की सामान्यता होने पर सदृश पुद्गलों के अवयवों का अर्थात् रूक्ष का रूक्ष के साथ तथा स्निग्ध का स्निग्ध के साथ बन्ध नहीं होता है।
अर्थात्-गुण साम्य हो ( =गुण की समानता हो ) तो सदृश पुद्गलों में बन्ध नहीं होता।
यहाँ सदशता स्निग्ध या रूक्ष गुण की अपेक्षा से समझनी। क्योंकि, स्निग्ध गुणवाला पुद्गल अन्य स्निग्धगुणवाले पुद्गलों की अपेक्षा समान है। ऐसे ही रूक्षगुणवाला पुद्गल अन्य रूक्षगुणवाले पुद्गलों की अपेक्षा समान है। स्निग्धगुणवाला पुद्गल रूक्षगुणपुद्गलकी अपेक्षा असदृश है। तथा रूक्षगुणवाला पुद्गल स्निग्ध गुण पुद्गल की अपेक्षा असदृश है।
गुणसाम्य यानी गुण की तरतमता का अभाव। जैसे एक लाख की मूड़ी वाले सभी व्यक्तियों में मूड़ी की संख्या की दृष्टि से समानता है, एक कोड़ की मूड़ीवाले सभी व्यक्तियों में मूड़ी की संख्या की दृष्टि से समानता है, वैसे समान गुण वाले सभी पुद्गलों में गुण की दृष्टि से समानता है।
जितने पुद्गलों में एक गुण (स्निग्ध या रूक्ष) स्पर्श हो, उन सभी पुद्गलों में गुणसाम्य है। स्पर्शना गुण की दृष्टि से वे सभी समान हैं। जिन पुद्गलों में द्विगुण स्पर्श हो वे सभी परस्पर समान हैं। किन्तु एक गुण पुद्गल और द्विगुण पुद्गल में परस्पर गुण साम्य का अभाव है, पीछे भले उन दोनों में स्निग्ध स्पर्श हो। उन दोनों में (एक गुण पुद्गल में तथा द्विगुण पुद्गल में) स्निग्ध स्पर्श हो, तो वे सदृश कहलाते हैं, किन्तु समान नहीं होते। .
इस सूत्र में पुद्गल सदृश हों और गुण समान भी हों, अर्थात् उनमें गुण साम्य भी हो, तो उनमें परस्पर बन्ध होता नहीं इस तरह बताने में आया है। अब उन्हीं में कौन-कौन सदृश हैं ?, कौन-कौन गुण समान हैं ? तथा किस-किस का परस्पर बन्ध नहीं होता है ? इन सभी को नीचे बताये हए कोष्ठक से समझा जायेगा।