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३५ ] तृतीयोऽध्यायः
[ २१ । (8) असि जाति के परमाधामी असि (तलवार) आदि शस्त्रों से नरक के जीवों के हाथ, पैर, साथल, बाहु, मस्तक तथा अन्य अंगोपांगों को छेदकर छिन्नभिन्न कर देते हैं।
(१०) पत्रधनु जाति के परमाधामी नरक के जीवों को असिपत्र वन विकुर्वण करके दिखाते हैं। छाया के इच्छुक नरक के जीव वहाँ आ जाते हैं। तत्काल ये पत्रधनु परमाधामी वायु-पवन चलाते हैं जिससे वृक्षों के नुकीले पत्ते नीचे गिरते हैं। इनसे नारक जीवों के हाथ, पाँव, कान तथा होठ इत्यादि अवयव कट जाते हैं। उनमें से रुधिर की धाराएँ छूटती हैं। .
(११) कुम्भ जाति के परमाधामी नरक के जीवों को कुम्भी, पचनक तथा शुठक इत्यादि साधनों से ऊपर उकलते हुए तेल इत्यादिक में भजिये की माफिक तलते हैं।
(१२) वालुका जाति के परमाधामी नरक के जीवों को भट्टी की वालुका-रेती से अनन्तगुणी तपी हुई कदम्बवालुका नामक पृथ्वी में फूटते हुए चने की भाँति सेकते हैं।
(१३) वैतरणी जाति के परमाधामी वैतरणी नदी का विकुर्वण करके उसमें नरक के जीवों को चलाते हैं। इस वैतरणी नदी में उकलते हुए लाक्षारस का प्रवाह बहता है। फिर उसमें अस्थि, केश, बाल, चरबी, रुधिर इत्यादि होते हैं। पुनः परमाधामी लोहे की अत्यन्त तपी हुई नौका-नाव में नरक के जीव को बैठाकर वैतरणी नदी में घुमाकर अति दुःख देते हैं ।
(१४) खरस्वर जाति के परमाधामी अति कठोर शब्दों में प्रलाप करते हैं। ऐसा करते हुए वे नरक के जीवों के पास आकर, कुल्हाड़ी से उनके शरीर को चमड़ी छोलते हैं तथा निर्दयपने से करोत के द्वारा शरीर के मध्यभाग को काष्ठ की भाँति चीरते हैं। फिर उसे विकराल और वज्र के तीक्ष्ण कण्टकों से पूर्ण ऐसे महाशाल्मलि वृक्ष के ऊपर चढ़ाते हैं ।
(१५) महाघोष जाति के परमाधामी नरक के जीव को गगनभेदी शब्दों से भयभीत बना देते हैं। भयंकर भय से भागते हुए नरक के जीव को पकड़कर तथा वधस्थान में रोककर उसे अनेक प्रकार की कदर्थना-पीड़ाएँ देते हैं।
इस प्रकार पन्द्रह प्रकार के परमाधामी तीसरे नरक तक रहे हए नारकी जीवों के शरीर को छिन्न-भिन्नादि कर डालते हैं तो भी उनके शरीर घोर पापों के उदय से पारद रस की माफिक पूर्ववत् मिल जाते हैं। नरक के जीव मृत्यु को इच्छते हुए भी निरुपक्रम अायुष्य की समाप्ति बिना कभी मृत्यु को प्राप्त नहीं होते। परमाधामी नारकों को परस्पर लड़ते हुए और मारामारी करते हुए देखकर अति आनन्द पाते हैं, इतना ही नहीं, किन्तु राजी होकर अट्टहास करते हैं, तालियाँ बजाते हैं तथा सिंह की भाँति गर्जना करते हैं।
___ इस प्रकार परमाधामी असुरकुमार जाति के देव प्रतिदिन नारकों को अत्यन्त ही दुःख देते हैं।
[१] प्रश्न-उपर्युक्त पन्द्रह प्रकार के असुरकुमार परमाधामी नरक के जीवों को परस्पर लड़ाने का और उनके दुःख की उदीरणा कराने का यह काम क्यों करते हैं ? ।