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तृतीयोऽध्यायः प्रतर, शर्कराप्रभा के ग्यारह प्रतर, वालुका के नौ प्रतर, पंक के सात प्रतर, धूम के पाँच प्रतर, तमः के तीन प्रतर और तमस्तमःप्रभा का एक ही प्रतर है। इनमें नारकी जीव रहते हैं।
विशेष
सातों नरक भूमियों में प्रत्येक में घनोदधि की मोटाई बीस हजार योजन की है। घनवात तथा तनवात की मोटाई प्रत्येक पृथ्वी में असंख्यात योजन की है। किन्तु नीचे-नीचे की पृथ्वी में घनवात और तनुवात की मोटाई अधिक-अधिक विशेष जाननी।
* यहाँ पर प्रश्न यह होगा कि-यहाँ का वायु अन्य स्थल में गये बिना नित्य पानी को धारण करके रखता है। पानी भी किसी स्थल में फैलाये बिना नित्य पृथ्वी को धारण करके रखता है तथा पृथ्वियों में पानी से प्रलय भी नहीं होता है। इस तरह अनादि काल से नित्य सतत रहने में कारण क्या है ?
उत्तर- इस तरह रहने में लोक स्थिति ही कारण है ।। ३-१ ।।
* नरकावासानां वर्णनम् * ॐ सूत्रम्
तासु नरकाः ॥३-२॥
* सुबोधिका टोका * तासु रत्नप्रभाद्यासु सप्तपृथिवीषु नरकजीवाः वसन्ति । रत्नप्रभादिपृथिव्याः एकसहस्रयोजनान्युच्चैरेकसहस्रयोजनान्यधस्ताद् (नीचैः) त्यक्त्वाऽवशिष्टभागे नरकावासाः सन्ति । तेषु छेदनं, भेदनं, प्राक्रन्दनं, घातनमित्याद्यनेकदुःखं नारकजीवैर्भुज्यते ।
तद्यथा-उष्ट्रिकापिष्ट पचनीलोहीकरकेन्द्रजानुकाजन्तोकायस्कुम्भायः कोष्ठादिसंस्थाना वज्रतलाः सीमन्तकोपक्रान्ता रौरवोऽच्युतो रौद्रो हाहारवोघातनः शोचनस्तापनः क्रन्दनोविलपनश्छेदनोभेदनः खटाखटः कालपिञ्जर इत्येवमाद्या अशुभनामानः कालमहाकाल-रौरव-महारौरव-अप्रतिष्ठानपर्यन्ताः। तत्र रत्नप्रभादावनुक्रमात् १३-११-६७-५-३-१ इत्थं सर्वं मिलित्वा एकोनपञ्चाशत् (४६) प्रतराणि सन्ति । तथा त्रिंशल्लक्षारिण, पञ्चविंशतिलक्षाणि, पञ्चदश लक्षाणि, दशलक्षारिण, त्रीणि लक्षारिण, पञ्चन्यूनकलक्षं तथा पञ्चैवं सर्वं सम्मेलया चतुरशीति लक्षाणि (८४०००००) नरकावासाः सन्ति । उपर्युक्तस्य प्रथमप्रतरस्य नाम सीमन्तकमस्ति, अन्त्यप्रतरस्य नाम अप्रतिष्ठानमस्ति चेति ॥ ३-२ ।।