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'तत्त्वार्थाधिगम सूत्र' नामक ग्रन्थ रचा। आपके पिता का नाम स्वाति और माता का नाम उमा था।
श्री उमास्वाति महाराज कृत 'जम्बूद्वीपसमासप्रकरण' के वृत्तिकार श्री विजय सिंहसूरीश्वरजी म. ने अपनी वृत्ति-टीका के आदि में कहा है कि उमा माता और स्वाति पिता के सम्बन्ध से उनका नाम 'उमास्वाति' रखा गया।
श्री पन्नवणा सूत्र की वृत्ति में कहा है कि 'वाचकाः पूर्वविदः।' यानी वाचक का अर्थ पूर्वधर है। इस विषय में 'जैन परम्परा का इतिहास' भाग १ में भी कहा है कि "श्री कल्पसूत्र के उल्लेख से जान सकते हैं कि आर्य दिन्नसूरि के मुख्य शिष्य आर्यशान्ति श्रेणिक से उच्चनागरशाखा निकली है। इस उच्चनागर शाखा में पूर्वज्ञान के धारक और विख्यात ऐसे वाचनाचार्य शिवश्री हुए थे। उनके घोषनन्दी श्रमण नाम के पट्टधर थे, जो पूर्वधर नहीं थे, किन्तु ग्यारह अंग के जानकार थे । पण्डित उमास्वाति ने घोषनन्दी के पास में दीक्षा लेकर ग्यारह अंग का अध्ययन किया । उनकी बुद्धि तेज थी। वे पूर्व का ज्ञान पढ़ सकें ऐसी योग्यता वाले थे। इसलिए उन्होंने गुरुआज्ञा से वाचनाचार्य श्रीमूल, जो महावाचनाचार्य श्रीमुण्डपाद क्षमाश्रमण के पट्टधर थे, उनके पास जाकर पूर्व का ज्ञान प्राप्त किया।
___ श्री तत्त्वार्थाधिगम सूत्र के भाष्य में 'उमास्वाति महाराज उच्चनागरी शाखा के थे', ऐसा उल्लेख है। उच्चनागरी शाखा श्रमण भगवान श्री महावीर परमात्मा के पाटे आये हुए आर्यदिन्न के शिष्य आर्य शान्ति श्रेणिक के समय में निकली है। अतः ऐसा लगता है कि वाचकप्रवर श्री उमास्वातिजी महाराज विक्रम की पहली से चौथी शताब्दी पर्यन्त में हुए हैं। इस अनुमान के अतिरिक्त उनका निश्चित समय अद्यावधि उपलब्ध नहीं है। श्रोतत्त्वार्थसूत्र की भाष्यप्रशस्ति में प्रागत उच्चनागरी शाखा के उल्लेख से श्रीउमास्वातिजी की गुरुपरम्परा श्वेताम्बराचार्य आर्य श्री सुहस्तिसूरीश्वरजी महाराज की परम्परा में सिद्ध होती है। प्रभावक प्राचार्यों की परम्परा में वाचकप्रवर श्री उमास्वाति महाराज एक ऐसी विशिष्ट श्रेणी के महापुरुष थे, जिनको श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों समान भाव से सम्मान देते हैं और अपनी-अपनी परम्परा में मानने में भी गौरव का अनुभव करते हैं। श्वेताम्बर परम्परा में 'उमास्वाति' नाम से ही प्रसिद्धि है तथा दिगम्बर परम्परा में 'उमास्वाति' और 'उमास्वामी' इन दोनों नामों से प्रसिद्धि है।