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४॥३६-३७
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चतुर्थोऽध्यायः
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+ विवेचनामृत ॥ यह भी इन्द्र तथा सामानिक देवों की अपेक्षा से ही समझनी। इस सूत्र में जो ईशानकल्प (देवलोक) का नामनिर्देश नहीं किया है, तो भी यथासंख्य अर्थात्-क्रम से ईशान का ही बोध होता है। क्योंकि पूर्व में प्रस्तावनारूप सूत्र में यथाक्रम शब्द का उल्लेख किया है ।। (४-३५)
* सनत्कुमारकल्पवासीनां देवानां उत्कृष्टस्थितिः * 卐 मूलसूत्रम्
सप्त सनत्कुमारे ॥ ४-३६ ॥
* सुबोधिका टीका * सनत्कुमारकल्पवासीनां देवानां उत्कृष्टस्थितिः सप्तसागरोपमाणि भवन्ति । स्थितीयमपि इन्द्रादिदेवानां ।
माहेन्द्रकल्पात् अच्युतपर्यन्तकल्पानां देवानां उत्कृष्टस्थितेः प्रमाणयति अग्रसूत्रम् ।। ४-३६ ॥
* सूत्रार्थ-सनत्कुमार कल्पवासी देवों की उत्कृष्ट स्थिति सात सागरोपम की है ।। ४-३६ ।।
+ विवेचनामृत 卐 सनत्कुमार कल्प में रहने वाले देवों की स्थिति सात सागरोपम की है। यह स्थिति इन्द्रादिकों की है।
माहेन्द्र कल्प (देवलोक) से लेकर अच्युतपर्यन्त कल्पों (देवलोकों) के देवों की उत्कृष्ट स्थिति का प्रमाण बताने के लिए अब अगला सूत्र कहते हैं ।। (४-३६) 卐 मूलसूत्रम्विशेष-त्रि-सप्त-दशैकादश-त्रयोदश-पञ्चदशभिरधिकानि च ॥४-३७॥
* सुबोधिका टीका * पूर्वसूत्रेण अस्मिन् सूत्रे सप्तशब्दस्यानुवृत्तिः । अतः एभिः विशेषादिभिः अधिकानि सप्त माहेन्द्रादिषु परास्थितिः जायते । माहेन्द्रे कल्पे सप्त विशेषाधिकानि । ब्रह्मलोके त्रिभिरधिकानि सप्तदशेति । लान्तककल्पे सप्तभिरधिकानि सप्तचतुर्दशेति ।