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चतुर्थोऽध्यायः
ज्योतिष्क देवों में प्रत्येक सूर्यविमान में तथा प्रत्येक चन्द्रविमान में एक-एक इन्द्र होता है। आकाश में सूर्य के विमान एवं चन्द्र के विमान असंख्यात होते हुए भी यहाँ जाति की अपेक्षा से ज्योतिषी देवों के दो ही इन्द्रों की गिनती की है। इसलिए यहाँ ज्योतिषी देवों के दो ही इन्द्र जानना। बारह देवलोक से ऊपर नौ ग्रेवेयक तथा पाँच अनुत्तर आये हुए हैं। वहाँ के देव कल्पातीत अर्थात कल्प से रहित होने से वहाँ इन्द्र आदि के भेद नहीं हैं। ४-६ ॥
भवनपति-व्यन्तरनिकाययोः लेश्या *
卐 मूलसूत्रम्
पीतान्तलेश्याः ॥४-७॥
* सुबोधिका टीका * प्रथम-द्वयोः निकाययोः देवानां पीतपर्यन्तश्चतस्रलेश्याः भवन्ति । अत्र लेश्याभिप्रायं द्रव्यलेश्या, अर्थात् भवनवासी-व्यन्तरनिकायानां देवानां वर्णः कृष्ण-नीलकापोत-पीतः । एतेषु चतुर्यु लेश्यासु कापि एकलेश्यास्वरूपं शकयते । न कोऽपि नियमः भावलेश्यायाः पूर्वयोः निकाययोः देवानां षड् लेश्यापि सम्भवाः ।
___ तत्रापि त्रिविधाः देवाः। तेष्वेकः देविसहितश्च प्रवीचारः। द्वितीयः देविविरहितः किन्तु प्रवीचारः तृतीयः देविप्रवीचारहीनः ।। ४-७ ।।
* सूत्रार्थ-उक्त दोनों निकायों में पीत पर्यन्त चार लेश्याएँ होती
卐 विवेचनामृत है पहले दोनों भवनपति-व्यन्तर निकायों के देवों के पीतपर्यन्त चार लेश्याएँ मानी गई हैं। अर्थात भवनपति और व्यन्तर जाति के देवों में शारीरिक वर्ण रूप द्रव्यलेश्या चार मानने में आई हैं। यहाँ पर लेश्या से अभिप्राय द्रव्यलेश्या का है। अर्थात् लेश्या शब्द का प्रयोग शारीरिक वर्ण के अर्थ में करने में आया है। क्योंकि अध्यवसाय रूप लेश्या तो छहों ही होती हैं।
भवनवासी और व्यन्तर निकाय के देवों के देह-शरीर का वर्ण कृष्ण, नील, कापोत और पीत इन चार लेश्याओं में से किसी भी एक लेश्या रूप हो सकता है।
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भावलेश्या के विषय में किसी भी प्रकार का नियम नहीं है। दोनों निकायों के देवों के छों प्रकार की भावलेश्या हो सकती है।
पूर्वकथित चारों निकाय के देव तीन विभागों में विभक्त किये जा सकते हैं