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________________ युक्ति प्राधान्य हो उसी पुस्तकका मानना योग्य है. पृष्ठ ७९ और ९७ पर भी इसी तरह जतिके वेष परावर्तनकी खोटी कल्पना की है. आगे पृष्ठ १४० तथा १४१ ३ में जतिके साथ एक पूजारीका संवाद भी अपने देवोंकी महत्वता बढ़ानेके लिये काल्पनिक बना लिया है, सो भी प्रमाणशून्य है. किंबहुना ?. 'ति मत ?' इस प्रकरणका शिर्षक ही लेखकके शिरस्थ द्वेषभावकी परिपूर्णताको वताता है. ऐसी द्वेष भावना. वाले मनुष्य प्रमाण पर दृष्टि रख कर लिखें यह तो पानीमेंसे मक्खनकी प्राप्ति जैसा है. जतिको जमदूत वनानेकी चेष्टाने तो सत्यका खून करनेसे लेखकको ही जमदूत बना दिया है. जमदूत अंधकार मूर्ति होता है. इस किंवदन्तीसे घनश्याममें यमरंगका रूपक भी घट सकता है और इस नोवेलमें ठिकाने ठिकाने पर सत्यका खून किया है, अतः कर्मसे भी जमदूतका रूपक घनश्याममें घट सकता है. जतिने आलेखी-" इतरा, राममोर, ४ामान," आदि शब्दो मंडलेश्वरके मुखसे निकलवाये हैं. ये शब्दो भी घनश्याम के श्यामहृदयका पूर्ण परिचय दिलाते हैं. इस प्रकार कहीं लश्कर ले कर जति आया. कहीं मंडले. श्वरको नदीमें डुबा दिया. इत्यादि उस पुस्तकमें प्रमाणशून्य सन्निपातिक मनुष्यकी तरह असंभाव्य प्रलाप किया है. गुरुदेव ! इस नोवेलके विषयमें मैंने मेरे ये विचार गत दिन ' पाटणनी प्रभुता ' को देख कर कितनेक यद्वा तद्वा बोलनेवाले मतुष्यों को समझाएं वे ऐसे मध्यस्थ थे कि, तुरत
SR No.022530
Book TitleMat Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages236
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Book_Devnagari
File Size17 MB
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