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(१५९) पृष्ठ ६४ वें में-"मतर सनतो मे २४पूतना वेषभां એક પુરૂષ અંદર આવે, તેનું મહતું એવું બાંધેલું હતું કે એકાએક ઓળખાય નહીં, કોણ આનંદસૂરિજી રાણીએ સાશ્ચર્ય પુછયું, હા બા હું જ મોંઢાપરથી ફેટાને છેડે કહાડી નાંખતાં
मानसूरिये ४." ऐसा लिख कर घनश्यामने झूठा अंधेर फैलाया है, क्यों कि इस प्रकारकी स्थिति उस समयमें तो क्या परंतु अद्यावधि नहीं बनी है, फिर ऐसी गप्प मारनेमें क्या फायदा ? किसी मतकी तौहीन करनेके इरादेके सिवाय ऐसे गप्पगोले चलानेमें अन्य कुछ प्रयोजन नहीं बन सकता लेखकने यह नहीं विचारा कि जैसे कोई सन्निपातके साहचर्यसे ज्यूं त्यूं बकवाद करे, यूं विना प्रमाण मैं बकवाद करता हूं इसको कौन सत्य मानेगा ?, जब यह बनावटी बात लोगोंमें असत्यतया प्रतीत ही बनी रही तो मेरा लिखना मुझे जनतामें अप्रमाणिक बनानेके सिवाय विशेष फल प्रदाता नहीं बन सकता. मूर्खके शिर पर कुछ शीगडे नहीं उगते ?, विना विचारे काम करना यही मूर्खताकी निशानी है. ऐसे अप्रामाणिक मनस्वी लेखक बहुत हो गये हैं. अतः पाठकोंको ध्यान रखना चाहिये कि, कोई भी पुस्तक देखना तो उसमें जिस मतकी लघुताके लिये जो कुछ लिखता है सो उस मतके पुस्तकके आधारसे या अन्य मध्यस्थ वर्गकी सूचनासे ?, या तो दलीलसे ?. इन तीन तरीकोंमेंसे कौनसे तरीकेसे काम लेता है ? इत्यादि ध्यान दिये वगैर एकदम ऐसे वेषिओंके बनाये हुए नोवेलोंसे किसी बातको हृदयमें जमा लेनी ठीक नहीं. क्यों कि, घनश्याम जैसे सैंकडो श्यामबुद्धिके मनुष्य किसी धर्मके विरुद्ध मनमें आवे ऐसे पुस्तक लिख मारते हैं, इस लिये जिस पुस्तकमें