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________________ (८२) नेसे पाप लगता है, देखो नीचेका श्लोक " क्षात्रधर्मे स्थितो जन्तून् , न्यवधीमंगयादिभिः । समाहितस्तत्तपसा, जयघं मदुपाश्रितः ॥ ६४ ॥" भावार्थ--क्षात्रधर्ममें रहे हुए तूंने शिकारसे अनेक जीवोंका वध किया है इस लिये मेरा आश्रय लेकर समाधिस्थ होकर तपश्चर्या द्वारा उस पापका नाश कर ॥ ६४ ।। भागवत दशम स्कंध पूर्वार्द्ध अध्याय २२ पत्र ८९-९० वे में लिखा है कि" कृष्णमुच्चैर्जगुर्यान्त्यः, कालिन्द्यां स्नातुमन्वहम् । नद्यां कदाचिदागत्य, तीरे निक्षिप्य पूर्ववत् ॥ ७॥" भावार्थ- उच्च स्वरसे अपने प्राणप्यारे यशोदानंदका नाम लेती और गुणानुवाद गाती यमुना पर स्नान करनेको जाया करती ॥७॥ " वासांसि कृष्णं गायन्त्यो, विजहः मलिले मुदा । भगवाँस्तदमिप्रेत्य, कृष्णो योगीश्वरेश्वरः ॥ ८॥" भावार्थ-एक दिन पहेलेके न्याई यमुनाके किनारे पर अपने अपने वस्त्र उतार कर सबने धर दिये और श्रीकृष्णचन्द्रके गुण गान करके यमुना जलमें विहार करने लगीं, तब योगीश्वरोंके ईश्वर भगवान श्रीकृष्णचन्द्र उनके मनका मनोरथ जानकर ॥ ८॥ १ यहपाठ इस लिये लिखा गया है कि अगर कोई कहे कि कृष्णजीने शीकार किया इसमें कुछ हरकत नहीं क्योंकि वे राजा थे और राज्यधर्ममें शीकारमें पाप नहीं होता तो उनको यह पाठ याद रखना चाहिये.
SR No.022530
Book TitleMat Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages236
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Book_Devnagari
File Size17 MB
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