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252 Studies in Umāsvāti उमास्वाति कहते हैं
ताः कृष्णनीलकापोततैजसीपद्मशुक्लनामानः। श्लेष इव वर्णबन्धस्य कर्मबन्धस्थितिविधात्र्यः।। -कारिका, 38
कृष्ण, नील, कापोत, तैजस, पद्म और शुक्ल नामक लेश्याएँ कर्मबन्ध की स्थिति में उसी प्रकार सहायक हैं, जिस प्रकार रंग को दृढ़ करने में श्लेष सहायक है।
___ इस अध्ययन से विदित होता है कि प्रशमरति एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है, तथापि इसे वह महत्त्व प्राप्त नहीं हुआ, जो तत्त्वार्थसूत्र को प्राप्त है। इसके अनेक सम्भव कारणों में से कुछ इस प्रकार हैं- (1) 'प्रशमरति' आगमिक प्रकरण ग्रन्थ है, इसमें दार्शनिक तत्त्व नगण्य हैं, जबकि तत्त्वार्थसूत्र जैनदर्शन का प्रतिनिधि ग्रन्थ रहा, अत: दार्शनिकयुग में टीका के लिए वही आधारभूत ग्रन्थ माना गया। (2) प्रशमरतिप्रकरण में श्रमण के लिए वस्त्र की एषणा का भी उल्लेख हुआ है, जो दिगम्बरों को स्वीकार्य नहीं था, अतः दिगम्बराचार्यों ने इस पर टीका करना उचित नहीं समझा और श्वेताम्बराचार्यों के लिए आगमग्रन्थ उपलब्ध थे, अतः इस प्रकरण पर अपेक्षाकृत कम ही टीकाएँ लिखी गईं। जो लिखी गईं उनमें से अधिकांश उपलब्ध नहीं हैं। (3) सूत्र शैली के ग्रन्थों पर दार्शनिक युग में जितनी टीकाएँ लिखी गईं, उतनी कारिका ग्रन्थों पर नहीं। ऐसे ही कुछ और भी कारण रहे होंगे, जो यह स्पष्ट करते हैं कि उमास्वाति का प्रशमरतिप्रकरण उतना प्रकाश में क्यों नहीं आया, जितना कि तत्त्वार्थसूत्र। आधुनिक युग में उपयोगी ग्रन्थः आधुनिक युग में प्रशमरतिप्रकरण की उपयोगिता असंदिग्ध है। प्रशमरति-प्रकरण में प्रशम एवं उसके सुख का प्रतिपादन उमास्वाति की नितान्त मौलिक सूझ है। उन्होंने वैराग्य, माध्यस्थ्य या कषायविजय रूप प्रशम का फल परलोक में ही नहीं, इस लोक में भी निरूपित किया है। प्रशमरतिप्रकरण की रचना का यही प्रमुख उद्देश्य भी प्रतीत होता है। उमास्वाति ने कहा है कि विषयसुख की अभिलाषा से रहित प्रशमगुणों से अलङ्कृतसाधु उस सूर्य की भाँति है जो अन्य समस्त तेजों को अभिभूत करके प्रकाशित होता है। प्रशम एवं अव्याबाध सुख को चाहने वाला साधक सद्धर्म में दृढ़ है तो देवों और मनुष्यों से युक्त इस लोक में उसकी तुलना नहीं हो सकती।
उमास्वाति का मन्तव्य है कि जिन्होंने मद और काम को जीत लिया है, मन, वचन और काया के विकारों से रहित हैं तथा पर की आशा से विरहित