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उमास्वातिकृत प्रशमरतिप्रकरण : एक अध्ययन 241 उत्पादविगमनित्यत्वलक्षणं यत्तदस्ति सर्वमपि।
सदसद्वा भवतीत्यन्यथार्पितानर्पितविशेषात्।। -प्रशमरतिप्रकरण, 204 व्यय के लिए प्रशमरति में विगम एवं ध्रौव्य के लिए नित्यत्व का प्रयोग हुआ है, शेष यथावत् है।
अध्याय-6
शुभः पुण्यस्य, अशुभः पापस्य। -तत्त्वार्थसूत्र, 6.3-4 पुद्गलकर्म शुभं यत्तत्पुण्यमिति जिनशासने दृष्टम्।
यदशुभमथ तत्पापमिति भवति सर्वज्ञनिर्दिष्टम्।। – प्रशमरतिप्रकरण, 219 अध्याय-7 (i) मूर्छा परिग्रहः। -तत्त्वार्थसूत्र, 7.12 अध्यात्मविदो मूर्छा परिग्रहं वर्णयन्ति निश्चयतः।
-प्रशमरतिप्रकरण, 178 हिंसाऽनृतस्तेयाऽब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतितम्। –तत्त्वार्थसूत्र, 7.1 (ii) अणुव्रतोऽगारी। –तत्त्वार्थसूत्र, 7.15
दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकपौषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमाणाऽतिथिसंविभागव्रतसम्पन्नश्च। -तत्त्वार्थसूत्र, 7.16
स्थूलवधानृतचौर्यपरस्त्रीरत्यरतिवर्जितः सततम्। दिग्व्रतमिह देशावकाशिकमनर्थविरतिं च। सामायिकं च कृत्वा पौषधमुपभोगपारिमाण्यं च। न्यायागतं च कल्प्यं विधिना पात्रेषु विनियोज्यम्।।
-प्रशमरतिप्रकरण, 304-305 श्रावक के बारह व्रतों का तत्त्वार्थसूत्र एवं प्रशमरतिप्रकरण में समान क्रम है। उपासकदशाङ्गसूत्र में देशावकाशिक को सामायिक के पश्चात् एवं उपभोगपरिभोग परिमाण व्रत को दिग्व्रत के पश्चात् रखा गया है। इस दृष्टि से उमास्वाति ने आगम निरूपित क्रम में अपनी सूझ से परिवर्तन किया है।