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222 Studies in Umāsvāti 3. विरत-प्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम से सर्वविरति का उदय। 4. अनन्तवियोजक-अनन्तानुबन्धी कषाय-चतुष्क का क्षय। 5. दर्शनमोहक्षपक-दर्शनमोह की सम्यक्त्व मोहनीय आदि तीन प्रकृतियों का
क्षय। 6. उपशमक-चारित्र मोह की प्रकृतियों के उपशम का प्रारम्भ। 7. उपशान्त मोह-मोह का पूर्णतः उपशम। 8. क्षपक-चारित्र मोह की प्रकृतियों के क्षय का प्रारम्भ। 9. क्षीणमोह-चारित्रमोह का सम्पूर्ण क्षय। 10. जिन-कैवल्य-प्राप्ति।
भगवतीसूत्र तथा पण्णवणासूत्र जैसे सैद्धान्तिक आगम ग्रन्थों में इन अवस्थाओं का उल्लेख न मिलने से यह स्पष्ट है कि इन दस अवस्थाओं की अवधारणा बाद में विकसित हुई। दस अवस्थाओं का सबसे प्राचीन उल्लेख आचारांग नियुक्ति में मिलता है। अतः उमास्वाति ने आचारांग नियुक्ति से इन अवस्थाओं को लिया, यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है, क्योंकि वे भद्रबाहु प्रथम के परवर्ती हैं। कुछ विद्वान् भद्रबाहु द्वितीय को नियुक्तियों का कर्ता स्वीकार करते हैं, अतः तत्त्वार्थसूत्र को नियुक्तियों से पूर्व की रचना मानते हैं, किन्तु चतुर्दशपूर्वी आचार्य भद्रबाहु नियुक्तियों के कर्ता थे, इस बात को हमने अनेक तर्कों से अन्यत्र सिद्ध करने का प्रयत्न किया है।
गुणश्रेणी विकास की दस अवस्थाओं का सर्वप्रथम उल्लेख आचार्य भद्रबाहु ने किया। इस कथन की पुष्टि इस बात से की जा सकती है कि आत्मा की निर्मलता या निर्जरा की तरतमता का ज्ञान या तो तीर्थंकर अपने अतिशायी ज्ञान से जान सकते हैं अथवा चतुर्दशपूर्वी अपने श्रुतज्ञान के वैशिष्ट्य से। निर्जरा की तरतमता सामान्यज्ञानी के लिए जानना असम्भव है। अतः कहा जा सकता है कि गुणश्रेणी विकास की ये दस अवस्थाएं आचार्य भद्रबाहु की मौलिक देन हैं।
सम्यक्त्व की उपलब्धि अनन्त निर्जरा का कारण है। अतः आचारांग के सम्यक्त्व अध्ययन की नियुक्ति में इन अवस्थाओं का वर्णन प्रासंगिक लगता है किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में विषय को महत्त्वपूर्ण समझकर सूत्रकार ने संवर के अन्तर्गत तप के प्रसंग में निर्जरा का तारतम्य बताने वाली इन अवस्थाओं का समाहार कर दिया है। वहां यह वर्णन प्रासंगिक जैसा नहीं लगता।