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तत्त्वार्थसूत्र में निर्जरा की तरतमता के स्थान : एक समीक्षा
समणी कुसुमप्रज्ञा
जैन आचार्य परम्परा में उमास्वाति का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उमास्वाति की लोकप्रियता को इस बात से जाना जा सकता है कि दिगम्बर और श्वेताम्बर - दोनों परम्पराओं ने उनके कर्तृत्व को स्वीकार किया है। जैन तत्त्व, दर्शन और सिद्धान्त के जो तथ्य आगमों में विकीर्ण रूप से मिलते थे, उनको उमास्वाति ने व्यवस्थित रूप से सूत्रबद्ध शैली में प्रस्तुत किया। तत्त्वार्थसूत्र में उन्होंने संकलन का कार्य ही नहीं किया, अपितु अनेक नए रहस्यों का उद्घाटन भी किया है। आगम - साहित्य के अलावा अपने पूर्ववर्ती आचार्यों की रचना से भी वे प्रभावित रहे हैं। निःसन्देह कहा जा सकता है कि प्राचीन जैन ग्रन्थों में इतना सुव्यवस्थित, सुसम्बद्ध और सूत्रात्मक शैली में लिखा गया कोई अन्य ग्रन्थ देखने को नहीं मिलता।
आचार्य उमास्वाति ने निर्जरा के प्रसंग में नवें अध्याय के सैंतालीसवें सूत्र में सम्यग्दृष्टि आदि गुणश्रेणी विकास की दस अवस्थाओं का वर्णन किया है। इन अवस्थाओं में पूर्ववर्ती अवस्था की अपेक्षा उत्तरवर्ती अवस्था में असंख्यात गुनी अधिक निर्जरा होती है। गुणश्रेणी विकास की दस अवस्थाओं के नाम इस प्रकार हैं।
1. सम्यग्दृष्टि - उपशम या क्षयोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति ।
2. श्रावक - अप्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम से आंशिक विरति का उदय ।