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________________ आगम-साहित्य में पुद्गल एवं परमाणु 79 का प्रकाश), छाया, आतप को भी पुद्गल का लक्षण (पर्याय) कहा गया है।' तत्त्वार्थसूत्र में शब्द, बन्ध, सूक्ष्मता, स्थूलता, संस्थान, भेद, अन्धकार, छाया, आतप, उद्योत से युक्त को भी पुद्गल कहा गया है। ये सब पुद्गल की पर्याय हैं' एवं पुद्गलरूप हैं, इन्हें गुण नहीं कहा जा सकता। शब्द को न्याय-वैशेषिक आदि दर्शन आकाश का गुण मानते हैं, किन्तु जैन दार्शनिक इसका खण्डन करते हैं एवं शब्द को पुद्गल की पर्याय सिद्ध करते हैं। शब्द जीव या अजीव पदार्थों के द्वारा उत्पन्न होते हैं। कहीं दोनों के मिश्रित रूप से भी शब्द की उत्पत्ति होती है। किन्तु पुद्गल के संयोग के बिना शब्द उत्पन्न नहीं होता। पुद्गल के संयोग से उत्पन्न होने के कारण शब्द पुद्गल की पर्याय है। आधुनिक विज्ञान में भी शब्द की तरंगों पर शोधकार्य हुए हैं, जो इनके पुद्गल होने का प्रमाण है। बन्ध भी पुद्गल की पर्याय है, क्योंकि बन्ध पुद्गलों में ही होता है। बन्ध दो परमाणुओं, द्विप्रदेशी स्कन्धों आदि के मिलने से होता है। परमाणुओं अथवा स्कंधों का परस्पर मिलने से जो बन्ध होता है, उसमें मुख्य कारण उनमें विद्यमान स्निग्ध और रुक्ष स्पर्श है। आधुनिक विज्ञान में जिसे धनात्मक आवेश कहा जाता है वह स्निग्ध गुण का तथा जिसे ऋणात्मक आवेश कहा जाता है, वह रुक्ष गुण का सूचक है। बन्धन किसका होता है एवं किसका नहीं, इस सम्बन्ध में श्वेताम्बर और दिगम्बर मतों में भिन्नता है। जघन्य गुणयुक्त दो परमाणुओं का बन्ध नहीं होता, इस सम्बन्ध में दोनों परम्पराएँ एक मत हैं, किन्तु श्वेताम्बर परम्परा में मान्य तत्त्वार्थभाष्य एवं तत्त्वार्थवृत्ति के अनुसार एक परमाणु के जघन्य गुण होने और दूसरे के जघन्य गुण न होने पर उनका बन्ध मान्य है। जबकि सर्वार्थसिद्धि आदि दिगम्बर ग्रन्थों के आधार पर जघन्य गुण और अजघन्य गुण परमाणु का परस्पर बन्ध नहीं होता है। दोनों परम्पराएँ यह मानती हैं कि समान अंश होने पर सदृश स्निग्ध आदि गुण वाले अवयवों का बन्ध नहीं होता है।' समान अंश वाले स्निग्ध का स्निग्ध के साथ तथा समान अंश वाले रुक्ष का रुक्ष के साथ बन्ध नहीं होता है। इस सम्बन्ध में श्वेताम्बर परम्परागत तत्त्वार्थभाष्य की मान्यता है कि एक अवयव में स्निग्धत्व या रुक्षत्व के सदृश अंश एक से अधिक दो-तीन चार तथा संख्यात, असंख्यात या अनन्त अधिक होने पर तो बन्ध होता
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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