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________________ 70 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन उत्पन्न होता है, अथवा जो सदैव जानता है, वह आत्मा है। 'जीवतिप्राणैरितिजीवः' अर्थात् जो इन्द्रियादि बल प्राणों के आधार पर जीता है, वह जीव है। इस प्रकार व्युत्पत्तिपरक भेद होने पर भी आगम-साहित्य में एवं तत्त्वार्थसूत्र में जीव एवं आत्मा शब्द का प्रयोग एक ही अर्थ में किया गया है। सिद्ध आत्माओं के लिए भी 'जीव' शब्द का प्रयोग इसका एक उदाहरण है। जीव उपयोगमय है। उपयोग उसका स्वरूप है। ज्ञानादि गुणों का उपयोग ही जीव का स्वरूप बनता है। न्याय-वैशेषिक आदि दार्शनिक ज्ञान आदि गुणों को आत्मा नामक द्रव्य में आगन्तुक गुण मानते हैं तथा मोक्ष की अवस्था में इन गुणों का नाश स्वीकार करते हैं। ऐसी अवस्था में उनकी आत्मा का स्वरूप चैतन्यरहित अर्थात् जड़ हो जाता है। जैनदर्शन आत्मा का यह स्वरूप नहीं मानता। जैनदर्शन में स्वीकृत आत्मा ज्ञान एवं दर्शन से अभिन्न है। विवक्षा की दृष्टि से ज्ञानादि गुणों को कथंचित् गुण एवं आत्मा को द्रव्य कह दिया जाता है। अन्यथा ज्ञान को ही आत्मा एवं आत्मा को ही ज्ञान कहने में कोई बाधा नहीं है। इसी प्रकार दर्शन गुण आत्मा की संवेदनशीलता को व्यक्त करता है। आत्मा के ये दो आवश्यक गुण हैं, जो उसके स्वरूप का निर्धारण करते हैं तथा जड़ पदार्थों से उसे पृथक् सिद्ध करते हैं। जीव का उपयोग-लक्षण चैतन्य का सूचक है। जीव के इस लक्षण से पंचभूतवाद की मान्यता का खण्डन हो जाता है। पंचभूतवादी चार्वाक मतावलम्बी पृथ्वी आदि पांच भूतों से ही चैतन्य का अनुभव मानते हैं, जो उनकी अत्यन्त स्थूल दृष्टि का सूचक है। वे बाह्य जगत् को देखकर ही इस प्रकार की मान्यता को लेकर चले हैं, भीतर में आत्मस्वरूप का साक्षात्कार करने वाले ज्ञानी पुरुष इस सत्य को जानते हैं एवं प्रतिपादित करते हैं कि आत्मा या जीव वस्तुतः शरीर से पृथक् स्वरूप वाला है। वह अष्टविध कर्मों से आबद्ध होने के कारण औदारिक आदि शरीरों से युक्त है। विग्रह गति में वह तैजस और कार्मण शरीर से युक्त रहता है। ये शरीर उस चेतना के कारण ही चेतन बने हुए लगते हैं। इस सत्य की सिद्धि जैन आगम के विशेषावश्यक आदि भाष्यग्रंथों, टीकाओं एवं उत्तरकालीन दार्शनिक ग्रंथों में विस्तार से की गई है। पंचभूतों से पृथक् चेतन तत्त्व को स्वीकार किये बिना सन्मार्ग का एवं सत्य का अन्वेषण संभव नहीं है। आत्मा का दूसरा लक्षण उसका अमूर्तत्व है। उसका न कोई आकार है और न ही
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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