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________________ जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन तज्जीव-तच्छरीरवाद में काया के आकार में परिणत भूतों से चेतना नामक आत्मा उत्पन्न होता है। तज्जीव-तच्छरीरवादियों के मत को सूत्रकृतांग में प्रस्तुत करते हुए कहा गया नत्थि पुण्णे व पावे वा, नस्थि लोए इतोवरे। सरीरस्स विणासेणं, विणासो होइ देहिणो।।" इनके अनुसार अभ्युदय की प्राप्ति कराने वाला तत्त्व पुण्य भी नहीं है तथा इसके विपरीत जीव का पतन करने वाला तत्त्व पाप भी नहीं है, क्योंकि जब शरीर से भिन्न जीव की ही सत्ता नहीं है तो उसमें रहने वाले पुण्य-पाप भी सत्तावान् नहीं हो सकते। इस लोक से भिन्न अन्य लोक भी नहीं है, जहां पर पुण्य-पाप का अनुभव किया जा सके, क्योंकि शरीर का विनाश होने पर आत्मा या चैतन्य का विनाश हो जाता है। सूत्रकृताङ्ग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में भी तज्जीव-तच्छरीरवाद की चर्चा है। उसके अनुसार तज्जीव-तच्छरीरवादियों का कथन है कि पैरों के तलवे से ऊपर तथा सिर के केशों के अग्रभाग से नीचे तक तथा बीच में जो भी शरीर है, वह जीव है। यह शरीर ही जीव का समस्त पर्याय है। इस शरीर के जीने तक ही यह जीता है तथा शरीर के मर जाने पर यह नहीं जीता। शरीर के चलने पर ही यह चलता है तथा विनष्ट होने पर नहीं चलता। वे कहते हैं कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, इसे किसी प्रकार सिद्ध नहीं किया जा सकता। जीव को शरीर से पृथक् मानते हैं तो उनका प्रश्न है कि वह आत्मा दीर्घ है या इस्व? परिमंडल है या गोल? वह त्रिकोण है या चतुष्कोण? षट्कोण है या अष्टकोण? अथवा क्या यह आयत है?यह काला है या नीला? लाल है या पीला या श्वेत? यह सुगन्धित है या दुर्गन्धित? यह तीखा है या कड़वा? कषैला है या खट्टा या मीठा? यह कर्कश है या कोमल? भारी है या हल्का? शीतल है या उष्ण? स्निग्ध है या रुक्ष? तज्जीव-तच्छरीरवादियों की इस शंका का उत्तर हमें आचारांग सूत्र में प्राप्त होता है। जो लोग जीव और शरीर को पृथक् मानते हैं वे आत्मा और शरीर को पृथक्-पृथक् करके दिखा नहीं सकते। जिस प्रकार म्यान से तलवार को बाहर
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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