________________
सूत्रकृतांग में परमतानुसारी आत्म-स्वरूप की मीमांसा
एवं पाँच के स्थान पर चार भूतों से ही चैतन्य की उत्पत्ति मानने लगे हों।
बौद्ध ग्रन्थ दीघनिकाय के ब्रह्मजाल सुत्त में चार भूतों को मानने वाले लोकायतिकों का उल्लेख हुआ है। उनका कथन है कि यह आत्मा रूपी है, चार महाभूतों से निर्मित तथा माता - पिता के संयोग से उत्पन्न है तथा शरीर के नष्ट होते ही चेतना उच्छिन्न, विनष्ट और लुप्त हो जाती है । '
3
53
सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के अनुसार पंचमहाभूतवादी कहते हैं कि सत्क्रिया या असत्क्रिया, सुकृत या दुष्कृत, कल्याण या पाप, साधु या असाधु, सिद्धि या असिद्धि, नरक या स्वर्गादि की प्राप्ति अथवा तिनके के हिलने जैसी क्रिया भी इन पंच महाभूतों से होती है । ये पांच महाभूत किसी कर्ता के द्वारा निर्मित नहीं हैं और न निर्मेय हैं। ये किसी के द्वारा कृत नहीं हैं और न ही ये कृत्रिम हैं। न ही ये अपनी उत्पत्ति के लिए किसी की अपेक्षा रखते हैं। ये पांचों महाभूत अनादि एवं अनन्त हैं। ये स्वतन्त्र एवं शाश्वत हैं। अपना कार्य स्वयं करने में समर्थ हैं। ' खण्डनः- चार्वाकों की इस मान्यता का सूत्रकृतांग में सीधा खण्डन नहीं किया गया है। किन्तु निर्युक्तिकार भद्रबाहु ने खण्डन करते हुए कहा है कि पृथ्वी आदि पंच भूतों के संयोग से चैतन्य आदि गुण उत्पन्न नहीं हो सकते, क्योंकि पंचमहाभूतों का गुण चैतन्य नहीं है। अन्य गुण वाले पदार्थों के संयोग से अन्य गुण वाले पदार्थ की उत्पत्ति नहीं हो सकती । जिस प्रकार बालू रेत में तेल उत्पन्न करने का स्निग्धता गुण नहीं है, इसलिए बालू रेत को पीलने पर उससे तेल उत्पन्न नहीं हो सकता; उसी प्रकार पंचभूतों में चैतन्य उत्पन्न करने का गुण न होने से उनके संयोग से चैतन्य उत्पन्न नहीं हो सकता। दूसरी बात यह है कि पांच इन्द्रियों ( रसन, स्पर्शन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ) से होने वाले ज्ञानों का संकलनात्मक अनुभव एक ही ज्ञाता को होने के कारण आत्मा का अलग अस्तित्व ज्ञात होता है । "
5
आचार्य शीलाङ्क ने सूत्रकृताङ्गटीका में चार्वाक मत का खण्डन करते हुए कहा है कि जौ, गुड, महुआ आदि में मदशक्ति नहीं होते हुए भी इनके समुदाय में मदशक्ति प्रकट हो जाती है, यह कथन उचित नहीं है, क्योंकि जौ, गुड आदि में मिटाने का सामर्थ्य होता है, भ्रम ( चक्कर ) उत्पन्न करने का सामर्थ्य होता है
भूख