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________________ सर्वार्थसिद्धि में आत्म-विमर्श 35 पूज्यपादाचार्य कहते हैं कि तत्त्व द्रव्य से पृथक् नहीं पाया जाता है, वह द्रव्य का ही भाव होता है। इसलिए तत्त्व का द्रव्य के साथ सामानाधिकरण सम्भव है। दूसरी बात यह है कि भाव में द्रव्य का अध्यारोप कर लिया जाता है। इसलिए भी दोनों का सामानाधिकरण्य सम्भव है। इस आलेख में जीव का तत्त्व एवं द्रव्य दोनों स्वरूपों में आगे सम्मिलित रूप से निरूपण किया जाएगा। ___ तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति ने उपयोग लक्षण वाले को जीव कहा है। उपयोग के दो भेद हैं- ज्ञानोपयोग एवं दर्शनोपयोग। इनमें ज्ञानोपयोग साकार तथा दर्शनोपयोग निराकार होता है। ज्ञान सविकल्पक होता है तथा दर्शन निर्विकल्पक होता है। ज्ञान एवं दर्शन ये दोनों आत्मा अथवा जीव के स्वरूप हैं। इनके अभाव में जैन दर्शन में जीवद्रव्य अथवा जीवतत्त्व की कल्पना नहीं की जा सकती। जिस प्रकार सांख्यदर्शन में प्रकृति त्रिगुणात्मिका होती है। सत्त्व, रजस् एवं तमस् इन तीनों गुणों से ही प्रकृति का स्वरूप बनता है, प्रकृति का इनसे भिन्न कोई स्वरूप नहीं है तथा सत्त्व, रजस् एवं तमस् की पृथक् स्वतन्त्र सत्ता भी नहीं है, इसी प्रकार जैन दर्शन में जीव या आत्मा के स्वरूप को समझा जा सकता है। ज्ञान एवं दर्शन गुण जीव अथवा आत्मा के स्वरूप हैं, इनसे भिन्न जीव का कोई स्वरूप नहीं है तथा ज्ञान एवं दर्शन का स्वतन्त्र रूप से पृथक् अस्तित्व भी नहीं है। न्याय-वैशेषिक दार्शनिक ज्ञान को आत्मा में आगन्तुक गुण मानते हैं, किन्तु जैनदर्शन को ऐसा स्वीकार्य नहीं है। जैन दर्शन तो ज्ञानदर्शनोपयोग को ही जीव का लक्षण स्वीकार करता है। ज्ञान जीव का लक्षण भी है, स्वरूप भी है एवं गुण भी है। जीव का लक्षणः उपयोग सर्वार्थसिद्धिकार पूज्यपाद ‘उपयोगो लक्षणम्' सूत्र पर वृत्ति करते हुए लिखते हैं- "उभयनिमित्तवशादुत्पद्यमानश्चैतन्यानुविधायी परिणाम उपयोगः" अर्थात् अन्तरंग एवं बहिरंग दोनों प्रकार के निमित्तों से उत्पन्न होने वाला चैतन्य संपृक्त जो परिणाम है वह उपयोग है। सर्वार्थसिद्धिकार की इस वृत्ति से दो बातें स्पष्ट होती हैं। एक तो यह कि उपयोग का प्रकटीकरण बाह्य अथवा आभ्यन्तर अथवा दोनों निमित्तों से हो सकता है, दूसरा यह कि इस उपयोग में चैतन्य निहित होता है। यह
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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