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________________ जैन आगम-परम्परा एवं निगम-परम्परा में अन्तःसम्बन्ध 487 जे य वेयविऊ विप्पा, जन्नट्ठा य जे दिया। जोइसंगविऊ जे य, जे य धम्माण पारगा ।। जे समत्था समुद्धत्तुं, परमप्पाणमेव य । तेसिं अन्नमिणं देयं, भो भिक्खू ! सव्वकामियं ।।-उत्तराध्ययनसूत्र, अध्ययन 25, गाथा 6-8 17. उत्तराध्ययनसूत्र 25.11 18. उत्तराध्ययनसूत्र, 25.30 19. उत्तराध्ययनसूत्र, 12.41-42 20. उत्तराध्ययनसूत्र, 25.30 21. सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला भवन्ति। दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णफला भवन्ति। - औपपातिकसूत्र, 56 22. तवो जोइ जीवो जोइठाणं, जोगा सुया सरीरं कारिसंगं । कम्मेहा संजम जोग संती, होमं हुणामि इसिणं पसत्यं ।। - उत्तराध्ययनसूत्र, 12.44 23. उत्तराध्ययनसूत्र, 14.12 24. उत्तराध्ययनसूत्र, 12.37 25. द्रष्टव्य, उत्तराध्ययनसूत्र, अध्ययन 12 26. उत्तराध्ययनसूत्र,25.20-26 27. जहा पोम्मं जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा । एवं अलित्तं कामेहि, तं वयं बूम माहणं ।। - उत्तराध्ययनसूत्र, 25.27 28. उत्तराध्ययनसूत्र, 25.28-29 29. धम्मपद के ब्राह्मणवग्गो में 41 गाथाओं में ब्राह्मण का स्वरूप वर्णित हुआ है। यहाँ पर दो गाथाएँ उद्धृत हैंयस्स कायेन वाचा य मनसा नत्थि दुक्कतं । संवुतं तीहि ठानेहि तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।। - धम्मपद, बाह्मणवग्गो, गाथा 9 जिसके मन, वचन और शरीर से दुष्कृत (पाप) नहीं होते, जो इन तीनों स्थानों से संवरयुक्त है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ। वारि पोखरपत्तेव आरग्गेरिव सासपो। यो न लिप्पति कामेसु तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।। - धम्मपद, बाह्मणवग्गो, गाथा 19 तालाब में कमल के पत्ते पर जल तथा आरे की नोंक पर सरसों की भांति जो भोगों में लिप्त नहीं होता, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ। 30. उत्तराध्ययनसूत्र, 28.14
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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