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प्रकाशकीय
प्राकृत भारती अकादमी अपनी स्थापना के चार दशक पूर्ण कर चुकी है तथा अकादमी को प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी एवं अंग्रेजी भाषाओं में अब तक 450 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित करने का गौरव प्राप्त है। राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर प्राकृत भारती के प्रकाशनों की प्रतिष्ठा स्थापित हुई है। उसी श्रृंखला में जैन दर्शन एवं संस्कृत-प्राकृत भाषा के मनीषी विद्वान् डॉ. धर्मचन्द जैन की प्रस्तुत पुस्तक 'जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन' का प्रकाशन करते हुए हमें महती प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है।
व्यक्ति के आचार एवं विचार को परिनिष्ठित बनाने की दृष्टि से जैन धर्म-दर्शन का भारतीय दार्शनिक परम्परा में विशिष्ट महत्त्व है। यह मानव जाति के समग्र उत्थान के साथ समस्त प्राणिजगत् एवं पर्यावरण-संरक्षण को भी समान रूप से महत्त्व देता है। यह वस्तुवादी दर्शन है, जिसमें आत्मा, शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, मोक्ष, परलोक, कर्म-सिद्धान्त आदि सबका महत्त्व है। विश्व में अहिंसा, शान्ति, पारिस्थितिकी सन्तुलन, मूल्यपरक आर्थिक विकास आदि के सम्बन्ध में जैन साहित्य में अनेकविध सबल विचार सम्प्राप्त होते हैं। जैन दर्शन के अनेकान्तवाद एवं नयवाद से वस्तु को समझने एवं उसके स्वरूप को अभिव्यक्त करने हेतु व्यापक दृष्टि प्राप्त होती है।
जैन धर्म आचार प्रधान है, जिसमें सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान पूर्वक आचरण पर बल प्रदान किया गया है। इसका दार्शनिक पक्ष भी अत्यन्त सबल है। जैन दर्शन में तत्त्वमीमांसा, ज्ञानमीमांसा, प्रमाणमीमांसा एवं आचारमीमांसा पर गहन चिन्तनमनन हुआ है।
प्रस्तुत पुस्तक में डॉ. जैन के आलेख जैन दर्शन के विभिन्न आयामों पर विशद प्रकाश डालते हैं। इसमें अस्तिकाय, आत्मा, काल, अनेकान्तवाद, कर्मवाद, कारणकार्य सिद्धान्त, पंचसमवाय आदि तत्त्वमीमांसीय विषयों की गहन चर्चा हुई है। सम्यग्दर्शन, श्रुतज्ञान, प्रमाण-स्वरूप, अवग्रहादि मतिज्ञान के भेदों, नयवाद, निक्षेप