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________________ 468 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन उपचारादाप्तवचनं च।" अर्थात् आप्तपुरुष के वचनों से प्रकट होने वाला पदार्थज्ञान आगम है, किन्तु उपचार से आप्त के वचन भी आगम कहे जाते हैं। आप्त पुरुष कौन होता है, इसका लक्षण करते हुए वादिदेवसूरि कहते हैं"अभिधेयंवस्तु यथावस्थितंयोजानीते यथाज्ञानंचाभिधत्तेसआप्तः।" अर्थात् जो वस्तु के स्वरूप को जैसा है वैसा जानता है तथा उस ज्ञान के अनुरूप कथन करता है वह आप्त पुरुष होता है । लौकिक एवं लोकोत्तर के भेद से वह आप्त पुरुष दो प्रकार का होता है । माता-पिता, गुरुजन आदि लौकिक आप्त हैं तथा तीर्थकर अलौकिक आप्त हैं । इस प्रकार तीर्थङ्करों की अर्थरूप वाणी के आधार पर गुम्फित आगम लोकोत्तर आगम हैं। ___तीर्थङ्कर समय-समय पर देशना देते रहे । अन्तिम तीर्थकर महावीर (599527 ई.पू.) ने जो देशना दी, वह शुद्ध ज्ञानराशि के रूप में प्रवाहित हुई । वह महासमुद्र की भाँति थी। उसमें से गणधरों द्वारा यत्किंचित् ज्ञानराशि का शब्दों में संकलन किया गया, जो अंग आगम के रूप में मान्य है। यह आगमवाणी प्रारम्भ में मौखिक परम्परा से चलती रही, जो काल के थपेड़े में विस्मृति एवं विशृंखलता को प्राप्त होने लगी। उसे सुरक्षित रखने के लिए तीर्थकर महावीर के निर्वाण के 160 वर्ष पश्चात् से 980 वर्ष तक की अवधि में क्रमशः पाटलिपुत्र, खारवेल, मथुरा एवं वलभी में वाचनाएँ हुई । वर्तमान में उपलब्ध आगम अन्तिम वाचना के अनुरूप हैं। आगमों में आचारांगादि 11 अंग ('दृष्टिवाद' नामक 12 वां अंग अनुपलब्ध), औपपातिक आदि 12 उपांग, दशाश्रुतस्कन्ध आदि 4 छेदसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र आदि 4 मूलसूत्र एवं आवश्यक सूत्र ये 32 आगम श्वेताम्बर स्थानकवासी एवं तेरापंथ सम्प्रदाय में मान्य हैं। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय 10 प्रकीर्णकों, पिण्डनियुक्ति एवं दो अन्य छेदसूत्रों महानिशीथ एवं जीतकल्प को मिलाकर 45 आगम मानती है। इन्हें कतिपय अन्य प्रकीर्णकों एवं ग्रन्थों को मिलाकर 84 आगम भी मान्य हैं। दिगम्बर जैन सम्प्रदाय में आचारांगादि आगमों के नाम तो श्वेताम्बरों की भाँति समान रूप से स्वीकृत हैं, किन्तु वे उन्हें अनुपलब्ध मानते हैं । उनके अनुसार अंग आगमों में 12वें अंग आगम ‘दृष्टिवाद' का कुछ अंश षट्खण्डागम, कसायपाहुड, महाबन्ध आदि ग्रन्थों के रूप में उपलब्ध है। आचार्य कुन्दकुन्द (प्रथम
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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