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________________ जैन-बौद्ध वाङ्मय में वर्णाश्रमधर्म और संस्कार 453 पुष्टि करता है । हरिकेश मुनि जन्मतः चाण्डाल थे, किन्तु जैनधर्म में दीक्षित होकर श्रमण बने। वे एक बार भिक्षा के लिए यज्ञस्थल पर पहुंच गए। यज्ञ कर रहे ब्राह्मणों ने उन्हें भिक्षा देने से यह कह कर मना कर दिया कि- तुम कहाँ से आए हो? तुम काले- कलूटे हो एवं पिशाच की तरह नज़र आ रहे हो, यहाँ से चले जाओ। यह भोजन केवल ब्राह्मणों के लिए तैयार हुआ है, हम तुम्हें यह भोजन नहीं दे सकते। मुनि को ब्राह्मणशिष्यों के द्वारा यष्टियों और चाबुकों से पीटा गया और यज्ञस्थल से बाहर निकाल दिया गया। ऐसा करते ही हरिकेशी मुनि की तपस्या का प्रभाव दृष्टिगोचर हुआ। वहाँ उपस्थित राजकुमारी भद्रा जो यज्ञप्रमुख राजपुरोहित सोमदेव की पत्नी थी, ने कहा- इस मुनि को मत पीटो। यह तपस्वी है। मेरे पिता राजा कौशिक ने मेरे स्वस्थ होने पर मुझे इस मुनि को प्रदान करने का प्रयत्न किया था, किन्तु इस मुनि ने मन से भी मुझे नहीं चाहा। ये मुनि नरेन्द्रों एवं देवेन्द्रों द्वारा अभिवन्दित हैं । ये उग्रतपस्वी, घोरव्रती, इन्द्रियविजेता, संयमी तथा ब्रह्मचारी हैं- ये अपमानित करने योग्य नहीं हैं। भद्रा के द्वारा ऐसा कहे जाने पर मुनिभक्त यक्षों ने उन ब्राह्मणों को दण्ड प्रदान किया। वे निश्चेष्ट हो गए, आँखे खुली रह गईं। यह दृश्य देखकर सब घबरा गए। राजपुरोहित सोमदेव खिन्न हो गया। हरिकेश मुनि से क्षमायाचना करता हुआ उनसे भिक्षा के लिए प्रार्थना करने लगा। आहार ग्रहण करने के पश्चात् यज्ञशाला में सुगन्धित जल और पुष्पों की वर्षा हुई। यहाँ सबको तप का साक्षात् प्रभाव दिखाई दिया एवं उन्हें यह स्पष्ट हो गया कि जाति की कोई महिमा नहीं है, तप-साधना की ही विशेष महिमा है ___ सक्खं खु दीसइ तवो विसेसो, न दीसइ जाई विसेस कोई। हरिकेश मुनि ने याज्ञिकों को सम्बोधित करते हुए बाह्य शुद्धि की अपेक्षा आन्तरिक शुद्धि पर बल दिया तथा श्रेष्ठ यज्ञ की विधि का प्रतिपादन करते हुए कहा कि जो पृथ्वी आदि षड्जीवनिकाय की हिंसा नहीं करते, मृषावाद एवं अदत्तादान का सेवन नहीं करते, परिग्रह, स्त्री, मान, माया आदि को जानकर इनका त्याग करते हैं, अहिंसा आदि पाँच संवरों से संवृत होते हैं तथा जीवन की आकांक्षा नहीं करते, शरीर की आसक्ति का त्याग करते हैं, कर्म शत्रुओं पर विजय पाने वाले ऐसे व्यक्ति ही श्रेष्ठ यज्ञ करते हैं।'
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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