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________________ वीतराग और स्थितप्रज्ञ : एक विश्लेषण 425 जीवे समसुहदुक्खे भवइ।" अर्थात् कषाय का प्रत्याख्यान (त्याग) करने से जीव वीतरागभाव को प्राप्त करता है। वीतराग भाव प्राप्त हो जाने पर जीव सुख दुःख में सम (समान) हो जाता है। वीतरागभाव की प्राप्ति से और भी अनेक लाभ होते हैं, जिनको अधोलिखित प्रश्नोत्तर में स्पष्ट किया गया है - ___ वीयरागयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? वीयरागयाए णं नेहाणुबंधणाणि तण्हाणुबंधणाणि य वोच्छिंदइ मणुण्णामुण्णेसु सद्दफरिसरसरूवगंधेसु चेव विरज्जइ। हे भगवन् ! वीतरागता से जीव को क्या लाभ होता है ? भगवान् उत्तर देते हैं - वीतरागता से जीव राग (स्नेह) के अनुबंधनों एवं तृष्णा के अनुबंधनों को काट देता है तथा मनोज्ञ एवं अमनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप एवं गंधादि से विरक्त हो जाता है। वीतरागता का सहभावी परिणाम राग का विनाश होना है । प्राकृत में नेह (स्नेह) शब्द राग अथवा आसक्ति का पर्याय है। इसमें मोह विद्यमान रहता है। पुत्र पौत्र, कलत्रादि के प्रति जो स्नेह होता है वह मोहरूप होता है । वीतरागता के साथ ही इस मोह का क्षय हो जाता है और मोह का नाश होते ही वैषयिक सुखभोग की तृष्णा भी समाप्त हो जाती है, वैषयिक सुखों के प्रति रागी अथवा मूढ (मोही) व्यक्ति का ही चित्त चलित होता है। निर्मोही व्यक्ति सुखभोग की तृष्णा से हीन, समभावी बन जाता है। कहा भी है- 'मोहोहओजस्सण होइतण्हा'।" वीतरागता की साधना समता की साधना है। समता में जो स्वाभाविक आनन्द की प्राप्ति होती है, वह विषमचित्त में कदापि संभव नहीं। समता में शान्ति, स्वाधीनता एवं अव्याबाध सुख का अनुभव होता है, विषमता में विकारों की अग्नि धधकती रहती है, जो मनुष्य के विवेक का नाश करती है। समता में विवेक जाग्रत होता है, मिथ्यात्व का हनन होता है, सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है तथा मुक्ति (दुःख-मुक्ति) का अनुभव होता है। स्थितप्रज्ञ एवं स्थितप्रज्ञता _ 'भगवद्गीता' में 'स्थितप्रज्ञ' का उतना ही महत्त्व है जितना ‘प्रस्थानत्रयी' में गीता का। 'स्थितप्रज्ञ' वर्णन को गीता का हार्द कहा जा सकता है। 'स्थितप्रज्ञ' शब्द
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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