SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 430
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन उपर्युक्त सभी उद्धरणों में जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध एवं मोक्ष इन नौ तत्त्वों या पदार्थों का कथन किया गया है। 412 ( 2 ) काल द्रव्य - उमास्वाति ने प्रशमरतिप्रकरण में धर्म, अधर्म, आकाश एवं पुद्गल के अतिरिक्त काल को भी अजीव द्रव्यों में स्थान दिया है, जबकि तत्त्वार्थसूत्र में उन्होंने काल को कतिपय आचार्यों के मत में द्रव्य निरूपित किया है । इससे यह विवाद का विषय बनता है कि उमास्वाति के मत में काल एक पृथक् द्रव्य है या नहीं ? इस सम्बन्ध में निम्नाकित बिन्दु विचारणीय हैं (क) तत्त्वार्थसूत्र में धर्म, अधर्म, आकाश एवं पुद्गल को उमास्वाति ने अजीवकाय कहा है (अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः- तत्त्वार्थसूत्र 5.1 )। यहाँ ‘अजीव’ के साथ ‘काय' शब्द उनके अस्तिकाय होने का सूचक है । 'काल' अजीव है, किन्तु वह अस्तिकाय नहीं है, क्योंकि उसके कोई प्रदेश - समूह नहीं हैं, इसलिए इसे चार अजीवकायों के साथ तत्त्वार्थसूत्र में नहीं रखा गया है । जीव अस्तिकाय है, किन्तु अजीव नहीं है, इसलिए उसे भी यहाँ नहीं गिनाकर उसके लिए पृथक् सूत्र 'जीवाश्च' ( तत्त्वार्थसूत्र 5.3 ) दिया गया । फिर उमास्वाति ने इन पाँचों द्रव्यों की समानता - असमानता के आधार पर उनका वर्णन तत्त्वार्थसूत्र में किया है । I (ख) 'काल' का पृथक् द्रव्य के रूप में उल्लेख तत्त्वार्थसूत्र के पाँचवे अध्याय के 38 वें सूत्र 'कालश्चेत्येके' के द्वारा किया गया है । किन्तु इसके पूर्व इसी अध्याय के 22 वें सूत्र में उन्होंने 'वर्तना परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य' सूत्र के द्वारा काल का लक्षण और उसके कार्य बताए हैं, जिससे सिद्ध होता है कि काल उन्हें पहले ही एक द्रव्य के रूप में अभीष्ट था। ऐसी स्थिति में 'कालश्चेत्येके' (5. 38) सूत्र की उपयोगिता नहीं रह जाती है । सम्भवतः यही कारण है कि सर्वार्थसिद्धि आदि टीकाओं में यह सूत्र 'कालश्च ( 5.39 ) ' रूप में ही पढ़ा गया है । पूज्यपाद देवनन्दी ने 'काल' के पृथक् कथन का औचित्य प्रतिपादित किया है । उन्होंने प्रश्न उठाया कि काल का कथन धर्म, अधर्म आदि चार अस्तिकायों के साथ क्यों नहीं किया गया ? इस प्रश्न का समाधान करते हुए उन्होंने कहा कि उस सूत्र
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy