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________________ प्रतिक्रमण 381 या भाव - प्रतिक्रमण है । इस भाव - प्रतिक्रमण के लिए प्रतिक्रमण के पाठों का निर्धारण किया गया है । व्यावहारिक दृष्टि से इन पाठों को भावपूर्वक बोलकर आत्मशुद्धि एवं व्रतशुद्धि की जाती है । प्रतिक्रमण के इस व्यावहारिक स्वरूप के अनुसार गृहीत व्रतों में अतिचार लगने पर आलोचन, निन्दना एवं गर्हा से उन अतिचारों या दोषों को दूर कर व्रतों को शुद्ध कर लेना प्रतिक्रमण है । प्रतिक्रमण की महत्ता निर्विवाद है । व्रतों में अतिचार लगने पर साधु और श्रावक को तो उनकी शुद्धि के लिए यथाकाल प्रतिक्रमण करना ही चाहिये । किन्तु साधारण व्यक्ति (अव्रती) भी अपनी भूलों का प्रतिक्रमण करने लगे तो आत्मशुद्धि का मार्ग उसके लिए भी सरल हो जाता है । व्रतों के अतिचारों का प्रतिक्रमण इस बात की भी प्रेरणा देता है कि व्यवहार में हमसे कोई भी भूल ऐसी हुई हो जो हमारे प्रमाद की वृद्धि करती हो, क्रोधादि कषायों को उद्दीप्त करती हो, दूसरों के प्रति मलिन व्यवहार को जन्म देती हो, अपने भीतर जिससे अशान्ति और क्षोभ उत्पन्न होता हो, वे सब भूलें प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा त्याज्य हैं । प्रतिक्रमण हमें आत्मानुशासित करता है और अपने ही द्वारा आत्मशुद्धि का मार्ग प्रशस्त करता है । अपनी भूल को भूल समझना ही आज कठिन हो गया है, उसकी शुद्धि तो दूर की बात है । नियमित रूप से द्रव्य प्रतिक्रमण करने वाले साधु और श्रावक भी जब तक अपनी भूलों, दोषों या अतिचारों का अवलोकन ( आलोचन ) नहीं करेंगे तब तक उनको भी निर्मलता, शान्ति और आनन्द का स्वारस्य प्राप्त नहीं हो सकेगा । द्रव्य प्रतिक्रमण का समय निर्धारित है, किन्तु भाव प्रतिक्रमण कभी भी किया जा सकता है । द्रव्य प्रतिक्रमण भाव प्रतिक्रमण का स्मरण दिलाने और उसे पुष्ट करने के लिए होता है । प्रतिक्रमण के पाठों का शुद्ध उच्चारण द्रव्य प्रतिक्रमण है, किन्तु उसके साथ जब भाव भी जुड़ जाते हैं तो वह द्रव्य प्रतिक्रमण भाव प्रतिक्रमण का रूप ले लेता है । भाव प्रतिक्रमण कभी भी हो सकता है । प्रतिक्रमण के पाठों के बिना भी भाव प्रतिक्रमण सम्भव है । इसके लिए साधक का सजग होना अनिवार्य है । भूल को सुधारना एवं उसे पुनः न दोहराने का संकल्प ही प्रतिक्रमण का प्रयोजन है । सजग साधक अपनी की हुई भूल को पुनः न दोहराने का संकल्प ले लेता है, किन्तु प्रमादी साधक बार-बार भूलें दोहराता रहता है और न दोहराने के संकल्प के प्रति सजग
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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