SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 392
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 374 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन मैने आत्महत्या एवं समाधिमरण का अन्तर इस प्रकार किया है:आत्महत्या तु सावेशा, रागरोषविमिश्रिता । समाधिमरणं तावत्, समभावेन तज्जयः । । * अर्थात् आत्महत्या तो आवेशपूर्वक की जाती है। इसमें राग-द्वेष का भाव मौजूद रहता है, जबकि समाधिमरण में तो राग-द्वेष को समभावपूर्वक जीता जाता है । युद्ध में जो सैनिक लड़ते हुए मारे जाते हैं वह आत्महत्या तो नहीं है, किन्तु उसमें प्राप्त मरण भी बालमरण अथवा अज्ञानमरण की श्रेणी में ही आता है, क्योंकि उसका सम्बन्ध कषायजय से नहीं, अपितु राग-द्वेष से ही है उपसंहार I प्रकीर्णक-साहित्य में वर्णित समाधिमरण की अवधारणा के सम्बन्ध में निम्नांकित प्रमुख बिन्दु उभरकर आते हैं 1. अंग- सूत्रों एवं उत्तराध्ययनादि में वर्णित पंडितमरण अथवा समाधिमरण का प्रकीर्णकों में विस्तार से निरूपण हुआ है। साथ ही अंग - सूत्रों में स्थापित मूलस्वरूप एवं लक्ष्य उनमें सुरक्षित रहा है। अतः प्रकीर्णकों की गणना श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा के 45 आगमों में होती है। जो परम्पराएँ इन्हें आगम नहीं मानती, उनके द्वारा भी आगमवत् पठनीय हैं। 2. समाधिमरण मुक्ति के मार्ग की एक उत्कृष्ट साधना है। मुख्यतः इसके तीन प्रकार हैं- भक्तपरिज्ञामरण, इंगिनीमरण एवं पादपोपगमनमरण। इन सभी समाधिमरणों में ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप की आराधना की जाती है। 3. मृत्यु होना सुनिश्चित है। धीर पुरुष भी मरता है और कायर पुरुष भी मरता है। जब मरना सुनिश्चित है तो धीर पुरुष की भाँति ही क्यों न मरा जाय, ताकि मरना सार्थक हो जाय। यह प्रकीर्णकों की प्रेरणा है। 4. प्रकीर्णकों में समाधिमरण के पूर्व संलेखना की बात कही है और संलेखना को बाह्य एवं आभ्यन्तर अथवा शरीर एवं कषाय के भेद से दो प्रकार का निरूपित किया गया है और कषाय की संलेखना के अभाव में शरीर की संलेखलना को निरर्थक प्रतिपादित किया गया है।
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy