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________________ 372 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन करता है, उसे वैसा फल भोगना पड़ता है, . . एक्को करेइ कम्मं एक्को अणुहवइ दुक्कयविवागं। एक्को संसरइ जिओ जर-मरण-चउग्गई गुविलं।।" अर्थात् जीव अकेला ही कर्म करता है और अकेला ही अपने दुष्कों का फल भोगता है, वह अकेला ही चतुर्गतियों में भ्रमण करता है। परिवार के लोग उसके शरणभूत नहीं हैं न वि माया न वि पिया, न बंधवा, न वि पियाडं मित्ताडं। पुरिसस्स मरणकाले न होंति, आलंबणं किंचि।।" अर्थात् माता-पिता, बन्धुजन और प्रिय मित्र कोई भी मृत्यु के समय पुरुष का सहारा नहीं बनता है। अशुचि भावना का स्वरूप प्रकट करते हुए आराधना प्रकरण में कहा गया है देहो जीवस्स आवासो, सोयसुक्काइसंभवो। धाउरूवोमलाहारो सुई नाम कहं भवे।।" अर्थात् जीव का आवास यह देह शुक्र आदि से पैदा होता है, धातु इसका रूप है, मल आहार है इसमें शुचिता क्या है ? इस प्रकार की विभिन्न भावनाओं से अपनी आत्मशक्ति को बल मिलता है, वैराग्य में स्थिरता आती है तथा वेदनाओं एवं परीषहों को सहन करने का सामर्थ्य मिलता है। 8. पंच परमेष्ठी की शरण अपने जीवन को सार्थक बनाने के लिए अन्त में साधक पंच परमेष्ठी की शरण ग्रहण करता है । पंच परमेष्ठी को नमस्कार कर उनकी शरण ग्रहण करने का उल्लेख अंग आगमों में कहीं नहीं हुआ है, यह प्रकीर्णकों एवं आराधनाओं की ही देन है। महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक में कहा है मम मंगलमरिहंता सिद्धा साहू सुयं च धम्मो य। तेसिं सरणोवगओ सावज्ज वोसिरामित्ति।' अर्थात् अरिहंत, सिद्ध, साधु, श्रुत और धर्म मेरे लिए कल्याणकारी हैं, मैं इनकी शरण में जाकर समस्त पापकर्म त्यागता हूँ। आचार्य एवं उपाध्यायों को भी
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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