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________________ 338 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन सूत्रकृताङ्ग सूत्र में प्रश्न किया गया - "भगवान महावीर ने बन्धन किसे कहा है, तथा क्या जानकर बन्धन को तोड़ा जा सकता है ?" गणधर सुधर्मा ने जम्बू स्वामी को उत्तर दिया है - "जिसका चेतन प्राणी या अचेतन पदार्थो के प्रति थोड़ा भी परिग्रह है अथवा उस परिग्रह का समर्थन है तो वह दुःख से मुक्त नहीं हो सकता।” पूर्णतः दुःख -मुक्ति के लिए परिग्रह (ममत्व) का त्याग अनिवार्य है। यद्यपि आगम में मूर्छा या ममत्व को परिग्रह कहा है, किन्तु इसका यह आशय नहीं कि गृहस्थ बाह्य साधन-साम्रगी या धन-सम्पदा कितनी भी रखे, और मूर्छा से रहित रहे। बाह्य धन-सम्पदा या वस्तुओं का स्वामित्व रखते हुए कोई ममत्व या मूर्छा से रहित नहीं हो सकता। उस मूर्छा को नियन्त्रित करने के लिए ही श्रावकाचार में इच्छा-परिमाण या परिग्रह-परिमाण व्रत को स्थान दिया गया है। परिग्रह का परिमाण मनुष्य की इच्छाओं का सीमांकन कर देता है। दूसरी बात यह है कि परिग्रह के साथ आरम्भ, मिथ्याभाषण, चौर्य, लोभ, अहंकार आदि सारे पाप जुड़े हुए हैं। जो अल्पेच्छ या मितेच्छ हो जाता है, किं वा परिग्रह का परिमाण कर लेता है वह सब पापों को नियन्त्रित करने की ओर चरण बढ़ा लेता है। उसको दूसरे पापों पर भी विजय प्राप्त करने में आसानी हो जाती है। ___ आभ्यन्तर परिग्रह के 14 भेद हैं- 1. मिथ्यात्व 2. क्रोध 3. मान 4. माया 5. लोभ 6. हास्य 7. रति 8. अरति 9. शोक 10. भय 11. जुगुप्सा 12. स्त्रीवेद 13. पुरुषवेद एवं 14. नपुंसक वेद। इस प्रकार आभ्यन्तर रूप से परिग्रह का विस्तार मिथ्यात्व, चार कषाय एवं नौ नोकषाय तक व्याप्त है। ये सारे भेद मोहकर्म से सम्बद्ध हैं। बाह्य परिग्रह के मुख्यतः पाँच प्रकार निरूपित हैं- 1. हिरण्य-सुवर्ण 2. क्षेत्र-वास्तु 3. धन-धान्य 4. द्विपद-चतुष्पद तथा 5. कुप्यादि-वस्तु। श्रावक इन सबकी मर्यादा करता है। वर्तमान काल में परिग्रह योग्य अनेक वस्तुओं तथा साधन-सामग्री का विस्तार हुआ है। उन सबका भी परिमाण किए जाने की आवश्यकता है। आभ्यन्तर एवं बाह्य दोनों प्रकार के परिग्रह में कमी होने पर जीवन आसान हो जाता है। जो श्रावक इन परिग्रहों का जितना परिमाण कर लेता है, वह अपनी जीवनयात्रा को उतना सुखकर बना लेता है। आगम में
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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