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________________ जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन है । अर्थकेन्द्रित व्यक्ति, समाज, राष्ट्र एवं विश्व के समक्ष भगवान महावीर द्वारा श्रावक समाज के लिए प्रतिपादित परिग्रह परिणाम - व्रत कितना प्रासंगिक रह गया है, यह एक विचारणीय बिन्दु है । अर्थ के साथ गृहस्थ जीवन का घनिष्ठ सम्बन्ध होते हुए भी तनाव रहित -जीवन जीने के लिए परिग्रह का परिमाण आवश्यक है । जो असीमित इच्छाओं के लोक में विचरण करता है वह अतृप्त एवं अशान्त बना रह कर दुःख के सागर में डुबकियाँ लगाता रहता है। उसका जीवन तनाव एवं दबाव से आक्रान्त रहता है। मस्तिष्क विविध चिन्ताओं की चिता में दग्ध होता रहता है । अर्थप्राप्ति की अन्धी असीमित दौड़ में मानव जिनके लिए धन कमाता है, वह उनके लिए ही समय नहीं निकाल पाता है। 336 आचारांग सूत्र में अर्थलोभी पुरुष के लिए कहा गया है- 'अहो य राओ य परितप्पमाणे कालाकालसमट्ठाई संजोगट्ठी अट्ठालोभी आलूंपे सहसक्कारे विणिविट्ठचित्ते एत्थ सत्थे पुणो पुणो ' - ( आचारांगसूत्र 1.2.2 सूत्र 72 ) । जो अर्थ का लोभी होता है वह दिन-रात संतप्त रहता है, काल - अकाल में भी अर्थ -प्राप्ति के लिए तत्पर रहता है। इच्छित संयोगों को चाहता हुआ वह चोरी, हत्या एवं भ्रष्टाचार का आलम्बन लेने में भी नहीं चूकता है । उसका चित्त धनादि अर्थ की प्रात्ति में ही लगा रहता है तथा उसके लिए हिंसा आदि करने को भी तत्पर रहता है । इस प्रकार आचारांग का यह सूत्र अर्थ के लोभ के कारण होने वाली मानसिक स्थितियों एवं दोषों का ख्यापन करता है । परिग्रह की भावना ही अर्थ के प्रति लुब्धता उत्पन्न करती है । अपरिग्रही को लोभ नहीं होता, अतः उसका चित्त शान्त रहता है तथा वह हिंसादि अनेकविध दोषों से बच जाता है। आचारांग सूत्र में लोभ को नरक का स्वीकार करते हुए कहा है- लोभस्स पासे णिरयं महंतं । - (आचारांग सूत्र 1.3.2 सूत्र 120) लोभी की स्थिति नारक जीव की भांति होती है जो सुख की लालसा में विषयों का संग्रह करने हेतु सन्नद्ध रहता है, किन्तु अन्त में उसे दुःख ही प्राप्त होता है । नारकी जीव जिस प्रकार एक-दूसरे को दुःख देते हैं, उसी प्रकार लोभी जीव भी एक-दूसरे को दुःखी करते हैं । वे भय एवं आशंका में जीते हैं । I अर्थ-संग्रह की असीमित दौड़ वाले के लिए आगम-वचन है
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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