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________________ अपरिग्रह की अवधारणा 333 क्या है? यम नचिकेता की परीक्षा लेने हेतु उत्तर को टालते हुए धन-सम्पत्ति, भौतिक सुख-समृद्धि एवं ऐश्वर्य का प्रलोभन देता है। वह कहता है-'हे नचिकेता! तुम सौ-सौ वर्षों तक जीने वाले पुत्र और पौत्रों को मांग लो। गाय, भेड़, हाथी, स्वर्ण, घोड़े और विशाल भू-मण्डल के साम्राज्य को मांग लो तथा इन सबको भोगने के लिए सैकड़ों वर्षों तक जीवित रहो। किन्तु नचिकेता इनकी यथार्थता को जानता है और कहता है- 'न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यः।" अर्थात् मनुष्य कभी भी धनादि द्वारा तृप्त नहीं किया जा सकता। वह कहता है मुझे आत्मा की अमरता के रहस्य को जानना है। ये सब धनादि तो विनश्वर हैं। ___ हम धन की अभिवृद्धि में लगे रहते हैं, किन्तु तृप्ति दूर भागती नजर आती है। धनाकांक्षा का कहीं अंत नहीं है। यौवन से वृद्धावस्था तक पहुँचने पर भी धन की लालसा अर्थात् तृष्णा तरुण रहती है। तृष्णा की आग का शमन करने के लिए ही परिग्रह-परिमाण एवं उपभोग-परिभोग-परिणाम व्रतों की प्रेरणा की गयी है। ये दोनों व्रत साधन हैं- अपरिग्रह एवं अनासक्ति तक पहुँचने के लिए। क्षेत्र-वास्तु, हिरण्य-स्वर्ण, दोपद-चौपद, धन-धान्य, कुविय-धातु आदि का परिमाण एवं कर्मादान की आजीविका का त्याग करने से तृष्णा एवं परिग्रह पर नियन्त्रण प्रारम्भ होता है। परिग्रह का बाह्य नियन्त्रण आंतरिक नियन्त्रण को पुष्ट करता है। वस्तुतः आंतरिक नियन्त्रण ही परिग्रह का सच्चा नियंत्रण है और वही परिग्रह जनित दुःख को समाप्त कर सकता है। 'दशवैकालिक' सूत्र के चतुर्थ अध्ययन में कहा है जयाचयइसंजोगं, सब्भिंतरबाहिरं। तयामुण्डे भवित्ताणं, पव्वइएअणगारियं ।।। अर्थात् बाह्य एवं आभ्यन्तर संयोग (परिग्रह-आसक्ति) को जो मनुष्य त्याग देता है वह मुण्डित होकर अणगार बनता है। वही अणगार दुःख से मुक्त होता है। __संक्षेप में यदि कहा जाए तो पर पदार्थों से मानसिक सम्बन्ध जोड़ लेना ही उनका परिग्रह है। पदार्थ, मनुष्य से, उसकी आत्मा से बाहर रहते हैं, किन्तु मनुष्य उनमें अपनी आसक्ति एवं अधिकार स्थापित कर दुःखी होता रहता है, उनमें ही अपनी आत्मा को समझने लगता है। यह भ्रम (मिथ्यात्व) है और यह भ्रम अविवेकपूर्ण है। विवेक की बात तो यह है कि पर-पदार्थों से मानसिक सम्बन्ध
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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