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________________ अपरिग्रह की अवधारणा 331 8. नैतिकता पूर्वक अर्जन सम्भव 9. करुणा एवं संवेदनशीलता 10. पर्यावरण संरक्षण 11. अपराध में न्यूनता अपरिग्रह एवं निर्धनता निर्धनता एवं अपरिग्रह का सम्बन्ध वस्तुओं के संग्रह या असंग्रह से नहीं है। अपरिग्रही होने का तात्पर्य निर्धन या दरिद्र होना नहीं है। यदि ऐसा हो तो सभी पेड़-पौधे, कीडे-मकोड़े, पशु-पक्षी आदि निर्धन होने से अपरिग्रही कहे जायेंगे।' सभी भिखारी निर्धन होने से अपरिग्रही की श्रेणि में आ जायेंगे। वस्तुतः जिसने समझ बूझकर पर-पदार्थों के प्रति आसक्ति एवं ममत्व का त्याग किया है वह ही अपरिग्रही की श्रेणि में आता है। गृहस्थ जीवन में निर्धन होना जीवन को संकट में डालना है। यथोचित धन या आजीविका का साधन भी आवश्यक है, किन्तु धन एवं पदार्थों के प्रति जो ममत्व एवं आसक्ति है उसे त्यागने की आवश्यकता है। अपरिग्रह का सिद्धान्त वैभव सम्पन्न व्यक्तियों के लिए जितना हितकर है उतना ही वैभवहीन व्यक्तियों के लिए भी है। एक के पास धन है, दूसरे के पास नहीं है, किन्तु मूर्छा या ममत्व दोनों में है। अतः उस मूर्छा की विमुक्ति के लिए अपरिग्रह धर्म का उपदेश दोनों व्यक्तियों के लिए समानरूप से उपादेय है।' अपरिग्रह की आवश्यकता अतः पर पदार्थों के प्रति आसक्ति एवं ममत्व न हो- यही भगवान् महावीर के अपरिग्रह सिद्धान्त का मूल लक्ष्य है। इस सिद्धान्त को जीवन में आत्मसात् करने पर शान्ति, समता एवं प्रसन्नता प्राप्त होती है। निराशा, असंतोष, एवं नीरसता के बादल छंट जाते हैं। सदैव प्रेम, दया एवं करुणा की अजस्रधारा प्रवाहित होने लगती है। बन्धन का अंत एवं मुक्ति का उदय होता है। पराधीनता की बेडियाँ टूट जाती हैं। यह मेरा भवन है, यह मेरी भूमि है, यह मेरा बैंक-बैलेंस है, यह मेरा नौकर है, यह मेरा भव्य कार्यालय है आदि वाक्य ममत्वबुद्धि के सूचक हैं। मेरेपन की बुद्धि छूटने पर ममत्व छूटता है, अतः आचारांग में कहा गया है- 'जे
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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