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________________ 328 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन सुख-भोग तो है, किन्तु उसकी निरन्तरता नीरसता में बदल जाती है। ऐसे व्यक्ति की जब इच्छाएँ या महत्त्वाकांक्षाएँ पूर्ण नहीं होती हैं तो वह तिलमिलाता है तथा कभी डिप्रेशन का शिकार हो जाता है। आचारांगसूत्र के अनुसार कामनाओं में आबद्ध व्यक्ति उनके पूर्ण न होने पर शोक करता है, खिन्न होता है, कुपित होता है, आँसू बहाता है, पीड़ा और परिताप का अनुभव करता है। डिप्रेशन आदि इन दुष्परिणामों से बचने के उपाय हैं- त्याग, प्रेम और सेवा। आसक्ति का त्याग ही त्याग है, दूसरों को अपनी भांति समझना प्रेम है तथा अपने को प्राप्त धन आदि का दूसरों के लिए सदुपयोग करना सेवा है। बुद्धि एवं भाव का उपयोग ___प्रायः धनिक व्यक्ति परिग्रही होता है। उसके पास बुद्धि भी है और भाव भी है, बुद्धि का उपयोग वह धन के संग्रह एवं उसकी सुरक्षा में करता है तथा भावों का उपयोग अर्जित धन एवं पदार्थों के प्रति आसक्ति में करता है। विचारों से वह संकीर्ण होता है, उसे धन अपनी सुरक्षा का एवं खुशहाली का हेतु दिखाई देता है। वह समझता है कि मुझे दुनिया में जो कुछ मिलना है इसी धन-सम्पदा से मिलेगा, इस तरह का भ्रम भी वह पाल लेता है। यह भ्रम उसे भटकाता है तथा कदाचित् ऐसी दुःखद परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं कि वह धन से उन पर विजय प्राप्त नहीं कर पाता है। उसे हताशा एवं निराशा का अनुभव होता है। उदार व्यक्ति प्रायः डिप्रेशन का शिकार नहीं होता। वह बुद्धि का उपयोग धन के अर्जन एवं रक्षण में करके भी पीड़ितों एवं जरूरतमन्दों की मदद के लिए तत्पर रहता है, इससे उसे भीतरी सुख का अनुभव होता है। उस सुख का रस उसे डिप्रेशन से बचाये रखता है। भावों के स्तर पर मनुष्य की स्वस्थता अनिवार्य है और वह स्वस्थता, उदारता, प्रेम, सहानुभूति, त्याग आदि सकारात्मक भावों से सम्भव है। परिग्रही में संयम एवं इन्द्रियनिग्रह नहीं परिग्रही (आसक्त) व्यक्ति इन्द्रिय-संयम, तप एवं नियम का पालन नहीं कर पाता है। आचारांग सूत्र में कहा गया है- "ण एत्थ तवो वा, दमो वा, णियमो वा दिस्सति।" (1.2.3, सूत्र 77) जो परिग्रही व्यक्ति शरीर एवं पदार्थ-सुख के प्रति आसक्त होता है, वह स्वाद-विजय, अनशन आदि का तप स्वेच्छा से नहीं कर
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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