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________________ जैनागम साहित्य में अहिंसा हेतु उपस्थापित युक्तियाँ 315 इसी प्रकार सभी प्राण, भूत, जीव एवं सत्त्व को डण्डे से यावत् कपाल से चोट मारे यावत् रोम उखाडे (उन्हें किसी भी प्रकार की यन्त्रणा दे) तो उन्हें भी कितने दुःख एवं भय का अनुभव होता होगा। ऐसा जानकर सभी प्राण यावत् सत्त्व न हन्तव्य हैं, न शासितव्य हैं, न दास बनाये जाने योग्य हैं, न परितापनीय हैं और न ही अशान्त बनाने योग्य हैं। ___ सूत्रकृतांग का यह संदेश सभी प्राणियों में आत्मवद्भाव की स्थापना करता है। जिन कारणों से मुझे स्वयं दुःख का अनुभव होता है, वैसे कारण मुझे दूसरे प्राणियों के लिए भी उपस्थित नहीं करने चाहिए। 3. हिंसा कर्म-बंधन का हेतु है __ जैन आगमों के अनुसार हिंसा से पाप कर्मों का आनव एवं फलतः बंध होता है। दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है अजयं चरमाणो उ, पाणभूयाइं हिंसइ। बंधइ पावयं कम्म, तं से होइ कडुयं फलं।।" अयतना (अविवेक, प्रमत्तता) से कार्य करने वाला प्राणियों की हिंसा करता है और परिणामस्वरूप कटुक फल देने वाले पाप कर्मों का बंध करता है। तत्त्वार्थसूत्र में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय एवं योग को बंध का हेतु कहा गया है। हिंसा का समावेश स्थूल रूप से अविरति में होता है। सूक्ष्म रूप से उस समय अशुभ योग, प्रमाद एवं कषाय भी रहते हैं। कर्म-बंधन का हेतु होने से हिंसा त्याज्य है। अहिंसा से संवर, निर्जरा एवं मोक्ष की प्राप्ति संभव है। क्योंकि अहिंसा धर्म है, व्रत है, समिति एवं गुप्ति है। अहिंसा किस प्रकार कर्मबंध का कारण नहीं है, इसके लिए कहा गया है जयं चरे जयं चिठे, जयमासे जयं सए। जयं भुंजतो भासंतो, पावकम्मं न बंधइ॥" यतनापूर्वक यदि चलने, ठहरने, बैठने, सोने, भोजन करने, बोलने आदि की प्रवृत्ति की जाती है, तो वह पापकर्म के बंधन का कारण नहीं होती। आगे कहा गया है सव्वभूयप्पभूयस्स सम्मं भूयाई पासओ। पिहियासवस्स दंतस्स, पावं कम्मं न बंधइ।"
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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