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________________ जैनागम साहित्य में अहिंसा हेतु उपस्थापित युक्तियाँ शान्ति, स्वतंत्रता, समता एवं निर्भय जीवन के लिए अहिंसा अपरिहार्य आवश्यकता है। इसके अभाव में सुखी जीवन, सुन्दर समाज, समृद्ध राष्ट्र एवं मैत्रीमय विश्व की परिकल्पना नहीं की जा सकती । आज जब विश्व में भय, आतंक एवं हिंसा का बोलबाला है, तब अहिंसा की उपयोगिता अधिक प्रासंगिक एवं आवश्यक प्रतीत होती है। हिंसा जहाँ व्यक्ति, समाज, राष्ट्र एवं विश्व को दुष्प्रभावित करती है, वहाँ अहिंसा प्राणिमात्र का कल्याण करने वाली है। हिंसा जहाँ हिंसा में संलग्न व्यक्ति को दूषित करती है एवं समष्टि के हित को प्रभावित करती है, वहीं अहिंसा शत्रुता का नाश कर व्यक्ति को भीतर से निर्मल बनाती है एवं समाज में सबके प्रति पारस्परिक मैत्री का स्थापन करती है। जैनागमों में हिंसा को पाप एवं अहिंसा को धर्म प्रतिपादित किया गया है । 'धम्मो मंगलमुक्किठें अहिंसा संजमो तवो" (अहिंसा, संयम एवं तपस्वरूप धर्म उत्कृष्ट मंगल होता है।) वाक्य से यही ध्वनित होता है। हिंसा का अर्थ जैन धर्म में किसी प्राणी का वध करना मात्र नहीं है। आचारांग सूत्र में हिंसा के पाँच रूपों का अनेकशः कथन हुआ है, यथा - 1. किसी जीव का हनन करना, 2. उस पर धोंस जमाते हुए शासन करना, 3. दास बनाना, 4. परिताप देना, 5. किसी जीव को अशान्त बनाना। इन रूपों का उल्लेख सभी प्राण, भूत, जीव एवं सत्त्व की हिंसा नहीं करने का परामर्श देते हुए किया गया है, यथा- 'सव्वे पाणा जावसव्वे सत्ताण हंतव्वा ण अज्जावेयव्वा, ण परिघेतव्वा, ण परितावेयव्वा, ण उद्दवेयव्वा।" साधारणतया हिंसा का अर्थ हनन किया जाता है, किन्तु भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित अहिंसा सबको समान रूप से जीने का अधिकार प्रदान करती है। इसमें प्रत्येक प्राणी के जीवन का सम्मान है। प्राणी छोटा हो या बड़ा, सबको जीने का अधिकार है। भगवान महावीर की अहिंसा मात्र मानव समुदाय तक सीमित नहीं, यह प्राणिमात्र की रक्षा की प्रेरणा करती है। आचारांग सूत्र में कहा गया है कि जो भी अतीतकाल में अरिहन्त हुए हैं, वर्तमान में अरिहन्त हैं तथा भविष्य में अरिहन्त होंगे, वे सभी इसी प्रकार का प्रतिपादन करते हैं कि किसी भी प्राण, भूत, जीव एवं
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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