SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 309
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अहिंसा का समाज दर्शन 291 ये जो कारण हैं उनका त्याग तभी हो सकता है जब हमें 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' का बोध हो जाए। अपने समान अन्य प्राणियों को भी जीवन प्रिय है, यह अहिंसा का पाठ समझ में आ जाय। प्राणातिपात शब्द की सार्थकता एवं प्राणियों में भेद हिंसा के अर्थ में आगमों में 'प्राणातिपात' शब्द का प्रयोग हुआ है। वस्तुतः आत्मा का हनन नहीं होता है, वह तो शाश्वत है, किन्तु आत्मा या जीव जिन प्राणों को धारण करता है, उनका अतिपात या हनन होता है। प्रत्येक संसारी जीव प्राणधारण करके ही जीवन जीता है। प्राणधारण करने के कारण उसे प्राणी कहा जाता है। प्राणधारण करने की अपेक्षा जीवों में भिन्नता पायी जाती है। पृथ्वी, जल, वनस्पति आदि एकेन्द्रिय जीव जहाँ स्पर्शनेन्द्रिय बलप्राण, कायबल प्राण, आयुष्य बल प्राण एवं श्वासोच्छ्वास बल प्राण- इन चार प्राणों का धारक होता है, वहाँ लट, केंचुआ आदि द्वीन्द्रिय जीव इनके साथ रसनेन्द्रिय बल प्राण एवं वचनबल बल प्राण सहित छह प्राणों को धारण करता है। चींटी, जूं आदि त्रीन्द्रिय जीव घ्राणेन्द्रिय प्राण के साथ सात प्राणों का धारक होता है। मक्खी, मच्छर आदि चतुरिन्द्रिय जीव चक्षुरिन्द्रिय सहित आठ प्राणों का स्वामी होता है। पंचेन्द्रिय जीव दो प्रकार के होते हैं- मन वाले संज्ञीजीव तथा मन रहित असंज्ञी जीव। इनमें असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव श्रोत्रेन्द्रिय सहित नौ प्राणों का धारक होता है तथा पशु, पक्षी, मनुष्य आदि संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव मनोबल सहित दस प्राणों को धारण करते हैं। इस प्रकार प्राणों के धारण करने की अपेक्षा इन जीवो में भिन्नता पायी जाती है । अतः एकेन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा को सामाजिक दृष्टि से समान नहीं कहा जा सकता। अतः एकेन्द्रिय की अपेक्षा द्वीन्द्रिय की, द्वीन्द्रिय की अपेक्षा त्रीन्द्रिय की, त्रीन्द्रिय की अपेक्षा चतुरिन्द्रिय की एवं चतुरिन्द्रिय की अपेक्षा असंज्ञी पंचेन्द्रिय की तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय की अपेक्षा संज्ञी पंचेन्द्रिय की रक्षा अधिक महत्त्व रखती है। एक मनुष्य को जीने के लिए जल, वायु, वनस्पति एवं अग्नि की आवश्यकता होती है। यदि मनुष्य के जीव एवं एकेन्द्रिय के जीव को प्राणों की अपेक्षा भी समान मान लिया जाए तो मनुष्य के द्वारा इनका सेवन न्यायोचित नहीं ठहरेगा, किन्तु मनुष्य इनकी व्यर्थ हिंसा से बचने का प्रयत्न करे यह आवश्यक है। सभी प्राणी रक्षणीय होते हए
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy