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अहिंसा का समाज दर्शन
निर्दोष बालक, महिलाएँ या पुरुष अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं। यह हिंसा का समाज पर सीधा प्रभाव है, उसे झुठलाया नहीं जा सकता। विश्व में अहिंसा के वातावरण की आवश्यकता का जो अनुभव किया जा रहा है, उसके पीछे एक कारण यह है कि हिंसा पर्यावरण एवं प्राणधारियों की विनाशक होने से विश्व की विनाशक है। हिंसा का प्रभाव दूसरे प्राणियों पर जिस प्रकार परिलक्षित होता है, उसी प्रकार अहिंसा का प्रभाव भी अन्य प्राणियों के प्राणों की रक्षा एवं मैत्री में सहायभूत होता है। अहिंसा से मनुष्य अन्तःशान्ति का अनुभव करने के साथ मानव समाज एवं प्राणिसमुदाय में भी निर्भयता तथा शान्ति का संचार कर सकता है।
आज आवश्यकता इस बात की है कि अहिंसा का सामाजिक पक्ष उजागर हो। प्राणिमात्र के जीवन की रक्षा का भाव मन में पैदा हो। यह भाव ही करुणा का द्योतक है, और जहाँ करुणा है वहाँ हिंसा स्वतः विश्राम पा लेती है। वैयक्तिक मुक्ति की प्रक्रिया में अहिंसा साधनभूत है, वहीं प्राणियों के रक्षण एवं उन्हें अभय प्रदान करने में भी उसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। समस्त विश्व के प्राणिजगत् का अस्तित्व अहिंसा के सामाजिक पक्ष पर टिका हुआ है।
आध्यात्मिक दृष्टि से हिंसा का परिणाम स्वयं को भोगना पड़ता है, अतः हमें हिंसा का संकल्प मात्र भी छोड़ देना चाहिए तथा सामाजिक दृष्टि से प्राणिरक्षण की उच्च भावना से हिंसा का परिहार करना चाहिए।
आयुष्य कर्म और अहिंसा
भारतीय परम्परा में यह विचारधारा प्रचलित है कि प्राणी का आयुष्य कर्म पूर्ण होने पर ही उसकी मृत्यु होती है, किन्तु इस प्रकार की मान्यता अहिंसा के सामाजिक पक्ष पर प्रश्न खड़े करती है। पहला प्रश्न तो यह खड़ा होता है कि हिंसा के कारण क्या प्राणी की मृत्यु नहीं होती? यदि मृत्यु नहीं होती है या आयुष्यकर्म पूर्ण नहीं होता है तो हिंसक कभी दोष का भागी नहीं कहलाएगा। इससे कर्मव्यवस्था एवं समाज-व्यवस्था गड़बड़ा जाएगी। जैनदर्शन में इसका समाधान अकालमरण की अवधारणा से किया गया है। जिसके अनुसार किसी के द्वारा बांधी गई आयु विभिन्न परिस्थितियों में पहले भी पूर्ण हो सकती है। यदि ऐसा नहीं माना
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